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जैन सुबोध गुटका ।
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सिन्धु तिरे ॥६॥दया हीन मत तजा तमाम, सब मजहब में वही निकाम । मानो यह सच्चा कलाम, वो भव सिंध तिरे ॥ ७॥ बैठो दया की जहाज मंझार,भवसिन्ध दे पार उतार । यही है तप जप को सार, वो भव सिंधु तिरे ॥८॥चौथमल कहे सुनो सुजान, दया धर्म महा सुख की खान । यह है वीर फरमान, वो भव सिन्धु तिरे ॥६॥
२४५ रेत!
तर्ज-पव्याली) - करो दिल में जरा विचार, क्यों जुल्मों से नहीं डरते हो । टेर ॥ ये माता पिता सुत दारा, तुम करो इसीसे प्यारा। नहीं चले तुम्हारे लार, फिर वृथा स्नेह करते हो ॥ करो ॥१॥ ये राज्य तख्त भंडारा,जर जेवर माल हजारा नहीं पाती साथ छदाम, नाहक फिर पच २ क्यों मरते हो ॥२॥ खूबसूरत प्यारी तुम्हारा, यह काया गुलाब सी क्यारी। ये होगा आखिर छार, फेर तपस्या क्यों नहीं करते हो ॥३॥ यह जवानी हैगी दिवानी । नहीं इसमें छना प्रानी बिजली का चमकार, फुसंगत से नहीं हटते हो॥४॥ श्रीवीर जिनन्द्र को 'ध्यारे, तो जनम मरण मिट जाव । कहे चीथमल हितकार, भव’ सागर क्यों नहीं तिरते हो ॥५॥