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जैन सुबोध गुंटत
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निर्लज्जपनं यह धारा.॥ इस० ॥ १॥ नहींन्यात २ भावे, नहीं जात २ चावे। सवः श्राप की जमावे, यह कायदा विगारा॥२. नहीं लज्जा.जात कुल की, वुड्ढे को देत लड़की । जरा पंचं लाज धरके, सुनते नहीं पुकारा ॥ ३॥ यह चाल कोई मिटावे, गस्ताखी पेंश श्रावे।वुजुर्ग की नसीहत पे,करते नहीं विचारा ॥४॥ गए डूब चाह वड़ाई, जाति में फर लड़ाई । स्वधर्मी धर्मी लड़के, नाइत्तफरक कर डारा ॥ ५॥ कैकई के वचन में पाके, दिया राज-यह भरत को। श्रीराम लम्म, रख, के, वनवाल को सिंधारा ॥६॥ कहलात जैन धर्मी, कंपाय माय वरते । अज्ञान अंधता से, वियरत्न को विसारी ॥७॥ प्यारे मित्र सब तुम, जैसे च खोल देखो । बर्वाद हुआ यह जाता, धन धर्म देश सारा ८॥ इसल्यूट से भारत में, नुकसान हो रहा है । कहे चौथमल जल्दी, वजा सम्प का
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२०७ प्रभु जाप.:: : : (तर्ग-बिना; रघुनाय के देखे नहीं दिलको करारी है ), अरे जो श्वांस आता है, उसी में इसको रटता जा । अगर हो शौक मिलने का तो हरदम लौ लंगांता जा ॥ टेरे। अरे संसार है झूठा, इली ले 'दिल हटाता जा। शैतान का छोड़ी, पलक उरले सिलाता जा ॥१०॥ १ ॥ फंस मन एश के फंदे,करे मत हुक्म से बेजा । उली के कदमों के अन्दर, हमेशा सर झुकाता जागा २अरे लोते:अरे उठते, अरे क्या वैठते चलते । अरे हर वार हर मौके,..उसीले दिल मिलाता जा.॥३॥ नहीं कोई यार लाधी है; नहीं धत माल है अपना। उत्ती..दिन का है को वेली, उसीसे दिल लड़ाता जा ॥४॥