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(१२८) जैन सुबोध गुटका ।" .. शील तप दान करी, मुक्ति में जाबोरे ॥
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. १९८ उपालंभ. . . . . . . (तर्ज-कव्वाली)
अरे देखी तुम्हारी अकल, क्यों मुम्भ से कहलाते हो। बस २ वाहजी वाह, खाली बातें बनाते हो। टेर ॥ अरे कोई नान के आलिम, दिया था ज्ञान हमने यह । अब मालूम हुआ हमको; धोखेबाजी चलाते हो। अरे॥१॥ नहीं दया दान के हो तुम, नहीं कोई लाज मर्यादा । नहीं कोई खोफ परभव का, मानो गुल्लर दिखाते हो ॥२॥ नहीं तप.जप है करणी, नहीं कोई त्याग पर परणी । नहीं जुल्मों से आते बाज, पंच खाली झुकाते हो ।। ३॥ नहीं भलपन बने खुद से, बुराई नेक की करते । बड़े. अफसोस . की है वात, थान को लजाते हो ॥ ४॥ खान पान ख्याल ऐशों में, सजी पोशाक युग वरती । तुम्हारी तुम जानो बाबा, इतने किसपे एंटाते हो ॥ ५॥ कहे यूं चौथमल तुमसे, बुरा मत मानियो प्यारे । सच्ची २ कही हमने, अमल में क्यों न लाते हो ॥६॥
"१६६ सुकर्त्तव्य.
(तर्ज-तीलगी दादरा) दया करने में जिया लगाया करो ॥टेर ॥ चलो तो