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जैन सुवोध गुटका ।
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तन सज करता जी, मोती पहनता था कान ॥ ३ ॥ काच तों देखी पाघां बांधता जी, मुखमें चावता था पान ॥ ४ ॥ धन तो योवन माया पावणी जी, जाता नहीं लागे वार ॥ ५ ॥ बड़ा तो बड़ा ने धरनी गल गई जी, गल गया हिन्दु मुसलमान || ६ || गर्व करी घोड़ा फेरता जी, हिन्दु पतं सुलतान || ७ | चांद ने सूरज जग में स्थिर नहींजी स्थिर नहीं इन्द्र ने नरेन्द्र ॥ ८ ॥ चक्रवर्ती वासुदेव कई जी गया दीपक ज्यू विरलाय ॥ ६ ॥ काया तो माया जैसे धूप छायांजी, प्रभु भजले दिन चार ॥ १० ॥ गुरु तो महाराज हीरालालजी, चौथमल देवे यों उपदेश ॥ ११ ॥
१८८ राजा हरिश्चन्द्र की सत्यता.
( तर्ज - मीरा थारे कांई लागे गोपाल )
कर्म गति कहिय न जावे राज हो कर्म० || ढेर || काशी नगर के वाम, हरिचंद्र करे विचार | देखी रानी फिकरमें, छूटी प्रांसु धार ॥ कर्म० ॥ १ ॥ सत्य को कैसे राखसुं, कौन देसी मुकने दाम । श्रव मुझको क्या जीवना हाथ कमाया काम || २ || सत्य गया तो क्या रहा, प्राण गया प्रमाण | जद राणी श्रजी करी, सुख लीजो घर ध्यान ॥ ३ ॥ निज प्यारा का. नेन सुं, लुहे प्रांसु चीर । मत झुरो थे साहवा, राखो सत्य शरीर ॥ ४ ॥ तारा कहवे मुझ भणी, वेच्यो मध्य बाजार । सत्य राखुं पीस पीसयो,