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जैन सुबोध गुटका |
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१-१ गफलत को छोड़( तर्ज इन्द्र सभा )
( ११७ )
१८२ प्रबोधन, ( तर्ज भजन )
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क्यों सोए भर नींद में, और श्रव तो नैन उघाएं | नहीं वसीला आगे तेरा, दिल में करले विचार | टेर || इस खलफत के बीच में, तुझे जीना है दिन चार । धन दौलत के चीच लोभाकर, मत तू पांव पसार ॥ क्या० ॥ १ ॥ मात पिता और सज्जन स्नेही, निज मतलब के यार । आखिर में वे बदल जायंगे, नहीं थायेंगे लार ॥ २ ॥ अती झरोखा रावटी, और चंचल गज तुखार | सोने की सेजां छोड़ेगा, सुंदर अवला नार ॥ ३ ॥ नित्य नई पोशाक बनावे, गले मोतियन के द्वार । दम निकले तन से खींचेंगे, तेरे सब शृंगार ॥ ४ ॥ परम " वसीला जैन धर्म का यही जग में आधार | चौथमल कहे वीर प्रभु भज, सफल करो अवतार ॥ ५ ॥
ऐसी देह पाई, भजो भगवंत तांईरे टेर ॥ मास सवा नव रह्यो गर्भ में, बहुत सी संकढ़ाई | नीट करीने बाहर निकल्यो, अब क्यों बंदा करे चतुराई ॥ ऐसी ॥ १ ॥ भांत २ का वस्त्र पहेरी, टेड़ी पाग भुकाई । गृह त्रिया में मग्न हुआ है, माया में रह्यो तु लुभाई ॥ २ ॥ मात पिता से मुख नहीं बोले, साला से गुस्ट लगाई । यम के दूत पकड़ेंगे थाकर, भूल जायगा वंदा घुमराई ॥ ३ ॥ गुरु हीरालाल प्रसाद चौथमल ऐसी जोड़ बनाई । नर तो नारायण वन जावे, वन्दा तेन ऐसी देह पाई ॥ ४ ॥