________________
जैन सुवोध गुटका।
(१०१)
॥२॥ लाइ लड़ावे भैया महतारी, खेले तू चौक मंमार ॥३॥ बीता वालपन.आई जवानी, सजता है तन पे सिंगार०॥४॥ बग्गी में बैठे मोटर में बैठे, जावे तू बाग मंझार ॥ मंझार० ॥ ॥५॥ काम में अंध नशे में धुंध हो, ताके तू गैरों की नार ॥ नार० ॥१॥ नदी का पूर ज्यूं गई जवानी, आयो बुढ़ापो जिवार ॥ जिवार०॥७॥ शीश हिले पग धूजन लागे, शुद्ध बुद्ध को दीनी विसार ।। विसार० ॥८॥ बाल युवा वृद्ध तीनों वस्त को, रत्नों सी दीनी निकार ॥ निकार० ।। ६ ।। वांधी करम गयो नरक अकेलो, खावे यमदूतों की मार ॥ मार०॥ ॥ १० ॥ चौथमल कहे जो सुख चाहे, सतगुरु के नमो चरनार ।। चरनार०॥११॥
१५६ कन्या विक्रय. (सर्ज-सत्य धर्म यह सवको सुनाय जायगे ) कन्या पेचो न शिक्षा हमारे ॥टेर । सुन्दर कन्या रत्न समानी, हिताहित का तो कीजो विचारीरे ॥ कन्या ॥१॥मात पिता का नाम धरावे। तो निर्दयता दिलमें क्यों धारीरे ॥२॥ साठ के पालम यह छोटीसी वाला । जैसे ऊंट गलेमें छारीरे॥३॥ प्रीतम मरे पे रो रो के बाला, उमर चीताती सारीरे ॥४॥ पैसे के लोभी नेक न सोची, कर दीनी जन्म दुखियारीरे ॥५॥अंधे अपंग रोगी पागल हो, पैसे की एक दरकारीरे ॥ पूखों ने महिमा कुलकी पढ़ाई । तापे लकीर निकारीरे ॥ ७ ॥ सत्बुद्धि धर्म नष्ट हो उसका । जिसने सुनीति यिसारीरे ॥८॥चौथमल हो भारत उदय कय । जो ऐसे पिता महतारीरे ॥६॥