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________________ (६०) जैन सुवोध गुटका। १३७ सत्संगपर सदुपदेश.. . (तर्ज-विना रघुनाथ के देखें नहीं दिलको करारी है ) अरे लत्लंग करने से, तुझे क्यों शर्म आती है । विना सत्संगके आयु, पशु मानिंद जाती है ॥ टेर ॥ तमाशा देखने रंडीका, मेफिल बीच जात हो। धर्म स्थान के अंदर, तुझे क्यों नींद आती है। अरे०॥१॥करे लुच्चेकी तू संगत, पिलाव वो तमाखू भंग । फैर पर नारी का परसंग, यही इज्जत घटाती है।॥ २॥ अरे! सत्संग बड़ा जहां में, चश्न को खोज करके देख । तिरे सलंग से पापी, जो गिनती नहीं गिनाती है ॥३॥ अगर लाखों करोड़ों का, करे पुण्यदान कोई प्राणी। मगर लर मात्रकी सत्संग, खास मुक्ति दिखाती है॥४॥ कहे यो चौथमल पुकार। सभी है झूठा संसार । एकलसंग जगर्भ सार, भवसागर तिराती है ॥५॥ १३८ विश्वमोह दिग्दर्शन. (तर्ज-गुलशन में आई वहार) किससे तू करता है प्यार, प्यार मेरे प्यारे, किसले तू करता है प्यार ।। टेर। उमर हुश्न दोय दामन का झमका । किस मोटर पर होता सवार ।। स० ॥ किसले० ॥१॥ पोशाक जिस्म पे सजता तू उमदा, गले गुलाब का हार॥ हार० ॥२॥ दोस्तोके संग में लहलों को जावे । जीवन की देखे वहार ॥ ५० ॥३॥ किस गफलत में सोताहै प्राणी, दुनियां तो मतलव की यार ।। यार० ॥४॥ मात, पिता, भैया बहिन, कुटुंब सव, छोड़ेंगे तुझको मंझधार ॥ धार० ॥ ५ ॥ श्वास है वहां तक सुंदर भूषण, फेर लेवेगे तन से उतार ॥ उ० ॥६॥
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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