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जन सुवोध गुंटका।
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डर आनो आनो आनो श्रानो श्रानो आनोरे ॥टेर ॥ कुचाले चालो मतिरे, कुल में लागे कलंक । रावन सरिखा राजवी जांकि, गई हाथ से लंक ॥ अहो मानो० ॥१॥ जैसे गऊवां होती उजाड़ी, ढींची पांव लगाय । नहीं माने गले डांग लगावे, ऐव तणे फल पाय ॥ २॥ पद्मनाभ को मान भंग भयो, मणिरथ नर्क सीधात । किच्चक का कीचड़का निकाल्या, या जग में विख्यात ॥३॥ पर नारी वैश्यां से यारी, तोजो पीवे शराव । मांसाहारी और शिकारी, नां का परमव हाल खराद ॥ ४ ॥ यौवन रंग पतंग सारे, जाता न लागे बार। थोड़ा जीतव्य के वास्ते थां, मत बांधो पाप को भार ॥ ५॥ जीवों की यतना करो, देवो सुपातर दान । भजन करोभगवान का, थारा सुर लोकों में मकान ॥ ६॥ गुरु हीरालालजी नो ठाणा पधारे, साहाजापुर के मंझार । चौथमल कहे उगणीसे चौसड, माह महिनो श्रेयकार ॥ ७ ॥
१२२ शिकार निषेध. (तर्ज-या हसीना वस मदीना, करवला में तू न जा) श्याह दिल हो जायगा, शिकार करना घोड़दे । कातिल बने मत अय दिला, शिकार करना छाड्डे ॥टेर ॥ क्यों जुल्म कर जालिम बनें, पापों से घट को क्यों भरे। दिन चार का जीना तुझे. शिकार करना छोड़दे ॥ श्या० ॥१॥ सूअर सांभर रोज हिरन, खरगोश जंगल के पशु । इन्सान फों देखी डरे, शिकार करना छोड़दे ॥२॥ तेरा तो एक खेल है, और उनके जाते प्राण है। मत खून का प्यासा वन, शिकार करना छोड़दे ॥३॥ वेकसूरों को सतावे, खौफ तू लांता नहीं। बदला फिर देना पड़े; शिकार करना छोड़दे ॥४॥. जैली प्यारी जान