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७-स्थादाद
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४-सप्तभंगी अधिकार
२०. नित्य अनित्य धर्म युगल में सप्तभंगी दर्शाओ।
अनेक पर्यायों में समवेत त्रिकाली अखण्ड द्रव्य की अपेक्षा करने पर नित्य है, और उसी की पर्यायों की ओर देखने पर वह अनित्य है । दोनों धर्मों की क्रम से योजना करने पर वह नित्य होते हुए भी अनित्य और अनित्य होते हुए भी नित्य है, पर युगपत कहना सम्भव न होने से वह अवक्तव्य है। अवक्तव्य होते हुए भी नित्य धर्म द्वारा अथवा अनित्य धर्म द्वारा अथवा दोनों धर्मों की क्रम प्रवृत्ति द्वारा वह वक्तव्य
है।
२१. क्या सर्वत्र सातों भंग कहो आवश्यक हैं ?
नहीं, इन सातों में पहिले दो ही मूल हैं। शेष पाँच इनके संयोग से उत्पन्न होते हैं । सातों के प्रयोग में अभ्यस्त हो जाने के पश्चात उन दो मूल भंगों के प्रयोग से शेष पांच का अनुक्त ग्रहण हो जाता है। अत: व्यवहार में प्राय: स्यात् अस्ति' व 'स्यात नास्ति' वाले प्रथम दो भग ही प्रयुक्त
होते हैं। २२. प्रथम दो मूल भंगों में क्या विशेषता है ?
प्रथम दो भंग विधि निषेध के सूचक हैं । सर्व विवक्षित अपेक्षा से पदार्थ विधि रूप तथा अविवक्षित अपेक्षा से निषेध रूप है। इन दो के कहने से उसकी स्पष्ट सिद्धि हो जाती है। जैसे अपने पिता की अपेक्षा वह पुत्र ही है पिता नहीं। ऐसा कहने से उसके पुत्रत्व का स्पष्ट निर्णय हो जाता है। अतः सर्वत्र ये दो ही प्रधान हैं। क्या सर्वत्र इन दोनों मूल भंगों का कहना भी आवश्यक है ? नहीं, विधि या निषेध किसी भी एक भंग के प्रयोग से भी प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि उनके साथ लगा हुआ एवकार स्वतः अपने प्रतिपक्षी धर्म का निषेध कर देता है, जैसे 'अपने पिता की अपेक्षा वह पुत्र ही है' ऐसा कहने पर स्वत:
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