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६-तत्वार्थ
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२-रत्नत्रयाधिकार २६. दृष्टि, अभिप्राय, रुचि, प्रतीति व श्रद्धा इन पांचों का
समन्वय करो। जिस ओर लक्ष्य या दृष्टि होती है, उसी को प्राप्त करने की रुचि होती है, उसी की प्राप्ति के अभिप्राय से यथो योग्य व्यापार या क्रिया की जाती है। जैसी क्रिया की जाती है उसके फल स्वरूप वैसी ही प्रतीति होती है, और उसी पर दृढ़ श्रद्धा होती
है। इस प्रकार ये पांचों उत्तरोत्तर एक दूसरे के पूरक हैं। २७. सम्यग्दर्शन के प्रकरण में दृष्टि आदि पांचों का महत्व क्या है ?
किसी व्यक्ति को सम्यग्दर्शन है यह बात तब कही जा सकती है जबकि उसकी दृष्टि या लक्ष्य एकमात्र शुद्धात्मा पर हो, उसके अतिरिक्त सब कुछ असत् भासता हो । रुचि भी उसेउसी परमतत्व को प्राप्त करने की हो, शुद्धात्मा की प्राप्ति के अभिप्राय से यथाशक्ति कुछ न कुछ आचरण भी अवश्य करता हो, अन्तरंग में शुद्धात्मा की साक्षात प्रतीति भी कदाचित होती हो, और 'यही शुद्धात्मा का स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति का उपाय
है, अन्य नहीं ऐसी दृढ़ आस्था हो । २८. दृष्टि रुचि आदि पांचों की परीक्षा किस बात से होती है ? ।
व्यक्ति की मन वचन काय की क्रियाओं व आचरण पर से होती है। किसी व्यक्ति का आचरण भोग विलास में फंसा हुआ हो अथवा स्वच्छन्दाचारी हो और मन में समझता रहे
कि मुझे शुद्धात्मा की रुचि है तो उसका भ्रम है। २६. भगवान व सम्यग्दृष्टि में किसका सम्यग्दर्शन बड़ा है ?
सम्यग्दर्शन एक सामान्य गुण है। इसमें तरतमता नहीं होती, चारित्र में होती है। जिस प्रकार गरीव व अमीर सभी व्यक्तियों में धन की रुचि समान है, भले ही उनके पास धन हीन हो या अधिक; उसी प्रकार भगवान व साधारण सम्यग्दृष्टियों में आत्मा की रुचि समान है, भले उनमें स्थिरता व तत्कृत आनन्द अधिक व हीन हो।