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६-तत्वार्य
२-रत्नत्रयाधिकार हेयोपादेय का भेद करके कथन किया गया है इसलिये व्यवहार है, और अखण्ड व निर्विकल्प एक आत्म तत्व का कथन किया गया है, इसलिये निश्चय/पहला पराश्रय जनित विकल्प होने
से व्यवहार और दूसरा निज स्वरूप होने से निश्चय है। १५. शास्त्रों में निश्चय सम्यग्दर्शन पर ही जोर क्यों दिया गया ?
क्योंकि स्व स्वरूप होने से साक्षात रूप से मोक्षमार्ग में वही
कार्यकारी है। १६. फिर व्यवहार सम्यग्दर्शन की आवश्यकता हो क्या थी ?
क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय सम्यग्दर्शन व प्राथमिक जनों को बताया जा सकता, न अभ्यास में लाकर प्राप्त किया जा
सकता है । व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन है और निश्चय साध्य । १७. दोनों सम्यग्दर्शनों में साधन साध्य भाव क्या है ?
प्राथमिक अनिष्णात व्यक्ति को पहले स्थूल रूप से मन्दिर में आने तथा देव शास्त्र व गुरु की अन्धश्रद्धा करने के लिये कहा जाता है। उन पर आस्था टिक जाने के पश्चात शास्त्र पढ़कर सात तत्व समझने के लिये कहा जाता है। सात तत्वों का शाब्दिक अर्थ समझ लेने के पश्चात उनका रहस्यार्थ ग्रहण करने को कहा जाता है, अर्थात उन्हें अपने जीवन में खोजकर उनका स्व-पर विभाग देखने को कहा जाता है । स्व-पर का विवेक हो जाने पर ही वह स्वानुभव करने को सफल हो सकता है अन्यथा नहीं। इस प्रकार व्यवहार सम्यग्दर्शन के तीनों लक्षण उत्तरोत्तर एक दूसरे के साधन होते हुए अन्त में निश्चय सम्यग्
दर्शन को उत्पन्न करते हैं। १८. आगम में सम्यग्दर्शन के कितने लक्षण प्रसिद्ध हैं ?
चार लक्षण प्रसिद्ध हैं(क) सच्चे देव शास्त्र व गुरु पर दृढ़ श्रद्धा होना। (ख) सात तत्वों या नव पदार्थों का श्रद्धान । (ग) स्व-पर भेद विज्ञान या स्व-पर में विवेक ।