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३-कर्म सिद्धान्त
१-बन्धाधिकार आनुपूर्वीय (नरक तिर्यच मनुष्य व देव); एक अगुरु लघु, एक उपघात, एक परघात, एक आतप, एक उद्योत, दो विहायोगति (प्रशस्त अप्रशस्त)। (आगे सब एक एक) एक
उच्छवास, एक त्रस, एक स्थावर, एक बादर, एक सूक्ष्म, पक पर्याप्ति, एक अपर्याप्ति, एक प्रत्येक, एक साधारण, एक स्थिर, एक अस्थिर, एक शुभ, एक अशुभ, एक सुभग एक दुर्भग, एक सुस्वर; एक दुःस्वर, एक आदेय, एक अनादेय,
एक यश: कीति, एक अयश: कीति, एक तीर्थकर नाम कर्म । (७५) गति नाम कर्म किसको कहते हैं ?
जो कर्म जीव का आकार नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य व देव के
समान बनाये। ७६. गति व आयु में क्या अन्तर है ?
गति कर्म शरीर के आकार का निर्माण करता है और आयु कर्म उसे कुछ निश्चित काल तक उस आकार में या शरीर में
बान्ध कर रखता है। (७७) जाति किसको कहते हैं ? ।
अव्यभिचारी सदृशता से एक रूप करने वाले विशेष को जाति कहते हैं। अर्थात वह सदृश जाति वाले ही पदार्थों को ग्रहण करता है। (जैसे गो जाति से खण्डी मुण्डी सभी गौओं का
ग्रहण हो जाता है)। (७८) जाति नाम कर्म किसको कहते हैं ?
जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय नीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय कहा जाये। (अर्थात जो कर्म इस इस जाति का
शरीर बनावे)। (७६) शरीर नाम कर्म किसको कहते हैं ?
जिस कर्म के उदय से आत्मा के औदारिकादि शरीर बने । (८०) निर्माण नाम कर्म किसको कहते हैं ?
जिसके उदय से अंगोपयांग की ठीक ठीक रचना हो (अर्थात