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३-कर्म सिद्धान्त
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१-बन्धाधिकार सोना; उठाये से भी न उठना 'निद्रा निद्रा' है । शोक या नश के कारण नेत्र गाल विकृत होना, सोते सोते भी सिर आगे पीछे गिरते रहना। इस प्रकार बैठे बैठे ही सोना 'प्रचला' है। पुनः पुनः प्रचला में प्रवृत्ति करना अथवा बैठे बैठे बार बार सोना, सिर धुनते या घूमते हुए सोना, अथवा चारों दिशाओं में लोटते हुए सोना प्रचला प्रचला है, । इसमें मुख से लार बहती है। स्वप्न में वीर्य विशष का आविर्भाव हो, सोते सोते बहुत से कर्म कर दे, सोते सोते खड़ा रहे, खड़ा खड़ा बैठ जाये, बैठकर भी पड़ जाये, उठाने पर भी न उठे, चलता सोता रहे, काटता
और बड़बड़ाता रहे, वह स्तयानगृद्धि' है। २४. निद्रा के कारणभूत कर्म को दर्शनावरण संज्ञा करो?
क्योंकि दर्शनगुण के घात हुए बिना निद्रा सम्भव नहीं। (२५) वेदनीय कर्म किसे कहते हैं ?
जिस कर्म के फल से जीव को आकुलता होवे, अर्थात जो अव्यावाध (अतीन्द्रिय) सुख को घाते उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। अव्याबाध सुख का घात क्या ? अतीन्द्रिय सुख से विमुख होकर भौतिक सुख साधनों में उलझना ही उसका घात है, क्योंकि भौतिक सुख व भौतिक
दुख दोनों ही व्याकुलता रूप हैं । २७. अतीन्द्रिय सुख क्या ?
समस्त भौतिक साधनों से निरपेक्ष अन्तरंग सहज आल्हादि,
शान्ति आनन्द या निराकुलता ही अतीन्द्रिय सुख है । (२८) वेदनीय कर्म के कितने भेद हैं ?
दो हैं-साता वेदनीय और असाता वेदनीय । २९. साता असाता वेदनीय किसे कहते हैं ?
भौतिक सुख व उसकी साधना सामग्री का संयोग तथा दुःख की
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