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२-द्रव्य गुण पर्याय १२८ ४-जीव गुणाधिकार १२८ मनः पर्यय में निमित्त क्या?
मनोमति ज्ञान पूर्वक होने से मनोनिमित्तक है । १२६. मन के निमित्त से होने के कारण इसे परोक्ष कहना चाहिये ?
नहीं, क्योंकि यहां मतिज्ञान की भांति मन का साक्षात निमित्त नहीं है, परम्परा निमित्त है । अर्थात यह ज्ञान मनोगति पूर्वक 'इसके मन क्या है' ऐसा कुछ विचार होने के पश्चात प्रत्यक्ष
रूप से उत्पन्न होता है। १३०. हम भी तो दूसरे मन की अनेकों बातें जान लेते हैं ?
जान अवश्य लेते हैं, पर वचन मुखाकृति व शरीर की क्रिया आदि बाह्य लक्षणों पर से अनुमान लगाकर जानते हैं, प्रत्यक्ष
नहीं । इसलिये वह श्रुतज्ञान है मनः पर्यय नहीं। १३१. अवधि व मनः पर्यय में क्या अन्तर है ?
अवधिज्ञान बाह्य के भौतिक पदार्थों के विषय में अथवा जीव की अशुद्ध द्रव्य पर्यायों के विषय में ही जानता है, जब कि मनःपर्यय जीव के अशुद्ध भाव पर्यायों के विषय में जानता है इसलिये अवधि ज्ञान का विषय यद्यपि मनःपर्यय से अधिक है, परन्तु स्थूल है । मनः पर्यय का विषय भावात्मक होने से
सूव्म है । इसी से अवधि की अपेक्षा मनः पर्यय विशुद्ध है। १३२. अवधि व मनपर्यय ज्ञान तो बड़े चमत्कारिक हैं। किसी को
हो जाये तो? लौकिक जनों के लिये ही आकर्षण हैं । मोक्षमागियों के लिये इनका कोई मूल्य नहीं। उन्हें तो श्रुतज्ञान ही चमत्कारिक है, जो यद्यपि परोक्ष है पर सर्व लोकालोक सहित निज शद्धात्म तत्व को भी ग्रहण करने में समर्थ होने से मोक्ष का साधन है।
(७. केवल ज्ञान) १३३. केवल ज्ञान किस को कहते हैं ?
जो विकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगवत (एक साथ स्पष्ट जाने ।