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-जन वाङ्मय सक्ष्मदृष्टिगम्य है । इसमें जगत् के 'सत्' स्वरूप का जंसा अनादिनिधन विवेचन जीवाजीव-मीमांसा द्वारा प्रतिपादित किया गया है वह ज्ञान सूर्योदयकारी है।
विदुषिरत्न ब्र० कुमारी श्री कौशल के द्वारा कुशलतापूर्ण प्रसूत इस पुस्तक को पढ़ने से ज्ञानगरिमा का सहज ही परिचय मिलता है। जैन वाङ्मय में नारी का सम्मान धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परम्परा में समान रूप से किया गया है। नारी के योग्य प्रशंसा पदों की जैन-संस्कृति में न्यूनता नहीं है और न उन्हें विकास करने का निषेध किया गया है ।' अध्येता लाभान्वित होंगे, ऐसा विश्वास है।
उपाध्याय विद्यानन्द मुनि
वर्षायोगवीर संवत् २५०३ दिल्ली-६
१- 'तपस्वी ऋषि-मुनियों या वैदिक ऋषियों में स्त्रियों का समावेश नहीं हुआ था।
गार्गी, वाचक्नवी-जैसी स्त्रियां ब्रह्म-ज्ञान की चर्चा में भाग लेती थीं पर उनके स्वतन्त्र संघ नहीं थे। स्त्रियों के स्वतन्त्र संघों की स्थापना बौद्ध-काल से एक-दो शताब्दी पूर्व हुई थी। ऐसा लगता है कि उनमें सबसे प्राचीन संघ जैन साध्वियों का था। ये जैन साध्वियां वाद-विवाद में प्रवीण थीं, यह बात भद्रा कुण्डलकेशा आदि की कथाओं से भली-भांति ज्ञात हो जायेगी।
-लेखक धर्मानन्द कोसाम्बी, बौद्ध संघाचा पस्थिय, प० २१४