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जैनसिद्धांतसंग्रह... . ८५. "तिन मुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपड़ खाज खुजावते ॥... रस, रूप, गंध तथा परस अरु, शब्द शुभ असुहावने । . तिनमें न राग विरोध पंचेंद्रियजयन पद पावने ॥ ४॥ . समता.सम्हार थुति उचारें वन्दना.निन देवको। । नित करें श्रुति रति करें प्रतिक्रम, तमें तन अहमेवको । जिनके न न्हौन न दंतघावन, लेश अंबर आवरण। . भूमाहि पिछली रयनिमें कछु, शयन एकासन करण ॥ ५॥ इकबार लेत आहार, दिनमें, खड़े अलप निन पानमें .। कचलोंच करत न डरत परिपह, सों लगे निज ध्यानमें । अरि मित्र महल मसान कंचन, काच निन्दन थुतिकरण । अर्घावतारण, असि प्रहारण-में सदा समताधरण ॥ ६॥ तप तपें द्वादश-धरै, वृष दश, रत्नत्रय सेवें सदा । मुनि साथमें वा एक विच, चहैं नहिं भवसुख कदा ॥ . यौ है सकल संयम चरित मुनि-ये स्वरूपाचरण अब ! जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सब पणा ‘लिन परम- पैनी सुबुधि छैनी, डार अंतर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तें, निज भावको न्यारा किया। निजमाहि निनके हेत-निजकर, आपको आपै गयो। गुणगुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मझार कुछ भेद न रखो ॥ ८॥ 'जह ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प वच भेद न जहाँ। चिद्भावकर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ । तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहाँ गज्ञानब्रमं ये, तीनघां एक लशा ॥ ९ ॥ :
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