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४] जैनासिद्धांतसंग्रह। किनह न करो न घरै को। पटू द्रव्यमयी ने हर की। सो लेकमाहिं दिन समंता । 'दुख सहै नीव नित भ्रमता im, अंतिम प्रीवकोंकी हद । पायो अनंत विरियाँ पद ॥" पर सम्यक्ज्ञान न लांघी । दुर्लभ निमें मुनि सा ॥१ नो भाव मोहत न्यारे । गज्ञान व्रतादिक सारे । '' सो धर्म नौ जिय धारै । तपही मुख अल निहारे । सो धर्म मुनिनकार परिये । तिनकी करंतुति उचरिये .. ताईं सुनिये भवि प्राणी । अपनी अनुभूति पिछांनी ॥१६॥
अथ पष्ठम ढाला हरिगीता छंद २८ मात्रा पट कायि नीव न हननत सब, विष दरबहिसाटरी:..: . रागादि भाव निवारतें, हिंसा.न भावित अवतरी गा.: . . जिनके न लेश मृषा मजल मृण हा विना दीयों गहैं..... अठदशसहस विधि शीलधर, चिवसमें नित रमि र १. ५.॥ अंतर चतुर्दश भेद'वाहर, संग दुशपति, टलें। . परमाद तनि चौकर मही लखि समिति यति चलें ॥ जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब. संशय हो। श्रम रोग हर जिनके वचन मुंख, चंद्र अमृत झरै ।: २.॥ छयालीस दोष विनामुकुल, श्रावक तणे घर अशनको । हैं तप बढ़ावन हेत नहिं तन, पोपते तन रसनको। : .
शुचि ज्ञान संमय उपकरण लखि-के गहें लसिके घर। ... निर्जतु थान विलोक तन मल, मूत्र क्षेपमं परिहरें ॥३॥ सम्यकप्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते . .