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"४८] जनसिद्धांतसंग्रह।
mamimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm तबही परमाद सतायो, बहुविध विकलप उपनायो । कछु सुधि बुधि नाहि रही है. मिथ्यामति छाय गई है ॥ १६ ॥ मरगदा तुम ढिग लीनी, ताहमैं दोष जु कीनी ॥ मिन भिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविर्षे सब लहिये।॥१७॥ हा हा मैं दुठ अपराधी, त्रसं नीवनराशि विराधी॥ थावरकी जतन न कीनी, उरमैं करुणा नहिं कीनी ॥१८॥ पृथिवी बहु खोद कराई; महलदिक जागां चिनाई। :: . विन गाल्यो पुन जल ढोल्यो, पंखाते पवन विलोल्यो ।॥ १९ ॥ हा हा मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।। या मधि जीवनिके खंदा, हम खाये धरि आनंदा ॥ २०॥ हा परमादवसाई, विन देख अगनि नलाई ॥ तामध्य जेीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये ॥२१॥ बीघो अन राति पिसायो, इंधन बिन सोध्य भलायो । झाडू ले भागां बुहारी, चिंटियादिक व विदारी ॥२२॥ जल छान नीवानी कीनी सोहु पुनि डारि जु दीनी ॥ नहिं लथानक पहुचाई किरिया विन पाप उपाई ॥२॥ नल मल मोरिनमें गिरायो. कमि कुल बहु घात करायो॥ नदियन विच ची धुवाये कोसनक जीव मराये ॥२४॥ अन्नादिक शाम कर.ई तामै जुनीर निसराई । तिनका नहि जतन कराया, गलियारे धूप डराया ॥ ५॥ पुनि द्रव्य कमावन काने बहु आरम हिंसा साने। किये अघ तृसनावश भारी, करुना नाहं रच विचारी २६ इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने श्रीभगवता ॥