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________________ जनसिद्धातसंग्रह । [४२१ मुनिवरके नोय ॥:तपके बलकर मुनि भोगाय । सोई भाव निरा माय । बंधे कर्म छुटै निह घरी। सोई द्रव्य निरा खरी ॥९॥ भयो मध्य अरु उरष नान । लोकत्रय यह कहे बखान || चौदह राजू सवे उतंग । वातत्रय बेढे सरवंग || घनाकार राजू गण ईसा कहैं तीनसै तैतालीस ॥ अधोलोक चौखूटो जान | मध्यकोक झालरी समान ॥ उद्धलोक मृदंगाकार । पुरुषाकार त्रिलोक निहार ॥ ऐसो निजघट लखे जुकोय। सो लोकानुप्रेक्ष यह होय॥१०॥ दुर्लभ ज्ञान चतुरगतिमाहि । भ्रमतभ्रमत मानुषगति पाहि ॥ जैसे जन्म दरिद्री कोय। मिलो रत्ननिधिताको सोय ॥ त्यू मिलियो यह नर पर्याय | आर्यखंड ऊंच कुल पाय॥ मायुपूर्ण पंचइन्द्री भोग । मंदकषाय धर्मसंयोग ।। यह दुर्लभ है या नगमाहिं। इन विन मिले मुक्तिपद नाहिं ॥ ऐसी भावना भावे सार । दुर्लभ अनुप्रेक्षा सु विचार ॥ ११ ॥ पालै धर्म यत्नकर नोय । शिव मंदिर ते कहेजुसोई ॥ धर्म भेद दशविधि निरधार | उत्तमक्षमा मार्दवसार ।। मार्जव सत्ये शौच पुन जान ॥ संयमतप त्यागहि पहिचान ।। माकिंचन ब्रह्मचर्य गनेवं ॥ यह दश भेद कहे जिनदेव ॥ धर्महि ते तीर्थकरगति । धर्महि ते होवे सुरपति । धर्महि ते चक्रेश्वर जान । धर्महिं ते हरि प्रतिहरि मान । धर्महि ते मनोन अवतार। धर्महिते हो भवधि पार | रत्नचंद्र यह को बखान | धर्महिते • पावे निर्वान ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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