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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [३४९ नौरमातंग उचायो । इमि० ॥ टेक |॥ ७ ॥ तब विलंब नईि कियो, शेठ सुत निरविष कीन्हौं । तब विलंब. नहिं कियो, मानतुंगबंध हरीन्हौं। तब विलंब नहिं फियो, वादिमुनिकोढ़ मिटायो। तब विलंब नहिं कियो कुमुद निन पास मिटायौ ॥ इमिः ॥ टेक । ८॥ तब विलंब नहि. कियो, अंजनाचोर उबारे । तब विलंब नहिं कियो, पुररवा मील सुधारे ।। तब विलंब नहि कियो, गृद्धपक्षी सुंदर तन । तब विलंब नहिं कियो, भेक दिय सुर अद्भुत तन ॥ इमिः ॥ टेक ॥९॥ इहविधि दुखनिवारन, सारसुख प्रापति कीन्हीं अपनो दास निहारे भक्तवत्सल गुन चीन्हौं। अब विलंब किहिं हेत, कृपा कर इहां लगाई। कहा सुनो अरदास नाहि, त्रिभुवनके राई ॥. जनद सुमनवचतन अब .. गही नाथ तव पद शरन । हो दयाल- ममाहालपे, कर मंगल मंगलकरन 11301 - जिनवचनस्तुति। हो करुणासागर देव तुमी निर्दोष तुमारा वाचा है। तुमरे वांचा हे स्वामी, मेरा मन सांचा राचा है ॥ टेक ॥१॥ बुधि केवल अप्रतिछेदवि, सब लोकालोक समाना है। मनु ज्ञेय गरास विकास अटक, झलाझल जोत जगाना है। सर्वज्ञ तुमी संब व्यापक हो निरदोष दशा अमलाना है । यह लच्छन श्री अरहंत विना, नहिं और कहीं ठहराना है । हो करु.॥१॥ धर्मादिक पंच वसै नहँ लौं, वह . लोकाकाश कहा है । विस आगें केवल एक अनंत, अलोकाकाश रहा है | अवकाश
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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