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जैन सिद्धांत संग्रह |
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दृढ़ता । जिन अथिर लखा संसार बसे बन जाके ॥ ९ ॥ यह पौष महीना भला, शीतमें घुला कांपती काया । वे धन्य गुरू जिन इसऋतु ध्यान लगाया || घर वारी घरमें छिपे वस्त्रतन लिपें रहैं जड़ियाया । तजि वस्त्र दिगम्बर हो मुनि कर्म खिपाया ॥ जलके तट जग सुखदाई, महिमा सागर मुनिगई । घरघीर खड़े हैं भाई, निज आतमसे लबलाई || है यह संसार असार वे तारणहार सकल वसुधाके । जिन अथिर कखा संसार बसे बन जाके ॥ १० ॥ ऋतु आई माघ वसंत नारि अरु कंत युगल सुख पाते । वे पहिने वस्त्र बसन्त फिरें मदमाते || जव चढ़े मैनकी सैन पड़े नहीं चैन कुमति उपजाते हैं बड़े धीर मन बहुषा वे डिग जाते || तिस समय जु हैं मुनि ज्ञानी, जिन काया लखी पयानी । भवि डूबत बोधे प्रानो, जिन ये बसंत जियजानी ॥ चेतनसे खेलें होरी ज्ञानरंगघोरी, जोग जल काके । जिन अथिर कखा संसार बसे बन जाके ॥ ११ ॥ जब लगा महीना फाग, करें अनुराग सभी नरनारी । ले फिरें कुमकुम फेंट हाथ विचकारी ॥ जब श्री सुनिवर गुणखान, अचल घरध्यान करें तप भारी । कर शीलसुधारस कर्मन ऊपर डारी ॥ कीरति कुमकुमे बनावें, कर्मोसे फांग रचावें । जो बारहमासा गाँवें, सो अजर अमर पद पावें ॥. यह भाखै नीयालाल, धरम गुणमाल, योग दरशाके । जिन मथिर कखा संसार बसे बन नाके ॥ १२ ॥