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जनसिद्धांतसंग्रह। | ३०१ दपि रोंग विनाशक होई मो पंद नगमैं और न कोई॥ निर्मळ. परम धाम उत्कष्टः । वन्दत पाप भने मरि दुष्टः ॥ २६ ॥ नों नर ध्यावत पुन्य कमाय। जंश गावत ऐ कर्म नशाय करें 'अनादि कर्मके पाप । भने सकल छिनमें संताप ॥२॥'सुर नर इन्द्र फणिन्द्र जुसवे और खगेन्द्र महेन्द्र जु नर्म, नित मुर सुरी करै उच्चार । नाचत गावत विविध प्रकार ॥ २८ ॥ बहु विष भक्ति कर मन काय । विविध प्रकार वाजिंत्र बजाय ॥ २९ ॥ . द्रुम द्रुम दुम बाने मृदंग । धन धना धंट बने मुहचंग ॥ झन झन झनिया करै उच्चार । सरसारंगी धुन उच्चार ॥ ३०॥ मुरली बीन बने धन मिष्टः। पटहांतुरी स्वरान्वत पुष्ट || नित सुरगुण थुति गावत सार । सुरगण नाचत बहुत प्रकार ॥ ३१॥ झननन झननन नूपुर तान । तननन तननन टोरंत तान । ता येई. थेई थेई थेई थेई चाल । सुर नाचत निन नावत सुमाल ॥३२ गावत नाचत नाना रंग लेत जहां सुर मानंद संम ॥ नित प्रति मुर जहां वंदन जाय ॥ नाना विध मंगल कौं गाय ॥३३॥ मनहद धुन सुन मोद जु सोय । प्रापत व्रतकी मत ही होय ॥ ताते हमकू है सुख सोई। गिरवर वंदों कर घर दोई ॥३४॥ मारुत मंद सुगंध चलेय । गंधोदक वहां वर सोय ॥ जियकी जात विरोध न होई । गिरवर वैदै कर धर दोई। ॥ ३५ ॥ ज्ञान चरित तपसाधन होई, निन अनुभौको ध्यान घरेई॥ शिव मंदिरको हारौ सोई, गिरवर वैदै कर घर दोई ॥ ३६ ।। नो भव वन्दै एक जुबार, नरक निगोद पशु गति यर ॥ सुर शिकपदकं पावै सोय । गिरवर वंदै कर घर दोय ॥ ३७ ॥ ताकी