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जैनसिंदातसंग्रह । [२४९ . भौगुन दुखतादा, कहो न माता मोहिमसाता, बहुत करे। । तंदुल गुनमंडितं, ममा मखडित, पनत पंडित, प्रीति धेरै प्रमु॥
ॐ ह्रीं भष्टदिशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीनिनेम्यो भक्षयपदप्राप्तये मक्षतान निर्वामीति ॥ ३॥ सुरनर पशुको दल, काम महापलं, बात कहत छल, मोहिं लिया। तोके शर लाऊं फूल चढाऊ, भक्ति बढाऊँ, खोल हियो पसुगा
'ॐही अष्टादशदीपरहिवषट्चत्वारिंशदगुणहितश्रीनिनेम्यो कामबाणावध्वंसनायं पुष्पं निर्बपामि ॥१॥ सब दोषनमाही, मासम नाही, भूख सदा ही, मो कागे। सद घेवर वावर, लाई बहु घर, थार कनक मर तुम मांगें ॥
ॐही मष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीमिनेम्यो क्षुद्रोगनाशाय नैवेध ॥. मज्ञान महातम, छाये रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम, दुख पावें । तम मेटनहारा, तेन मपारा, दीप संवारा, नस गावें ॥ प्रभुः ॥ • . ॐहीं मष्टादशदोषरहितषटचत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वामि ॥६॥ इह कर्म महावन, मूल रहयो जन, शिवमारग नहिं पावत है। कुष्णागुरुधूपं, समलअनूपं, सिडस्वरूप, धावत हैं। प्रभु अवरनामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो। यह अरज सुनीज, ढील न कीन, न्याय करीने, दया धरो.पा.
ॐ ह्रीं-मष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणासहितश्रीजिनेभ्यो. मष्टकर्मदहनाय धूपं० . . . . . . .