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________________ २३८] जैनसिद्धांतसंग्रह। जल गंधाक्षत चार, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यकज्ञा ॥९॥ ही अप्रविषसम्याज्ञानाय अर्घ्य निर्वपा. स्वाहा ९॥ अय जयमाला। दोहा-आप आप जाने नियत ग्रंथपठन न्योहार । संशय विभ्रम मोह विन, अप्टअंग गुनकार ।। चोपाई मिश्रित गीता छन्द । • सम्यकज्ञान रतन मन भाया । आगम तीजा नैन बताया ॥ भक्षर शुद्ध अर्ष पहिचानौ । भक्षर अर्थ उमय संग नाना ।। 'चानौं सुकाल पढ़ो जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये । तपरीति गही बहु मान दे, विनयगुन चित लाइये। ए आठ भेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पण देखना। इस ज्ञानहींसों भरत सोझे, और सब पटपेखना ॥२॥ ॐ अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाध्य निर्वपा• स्वाहा ॥२॥ चारित्र पूजा। दोहा-विषयरोग औषध महा, देवकषायजलधार । तीर्थकर जाको धेरै, सम्यकचारितसार ॥१॥ *ही त्रयोदशविषसम्यकचारित्र ! अत्र अवतर अवतर।. संबोषट् । ॐ त्रयोदशविधसम्यकूचारित्र ! अत्रतिष्ठ तिष्ठ| 3:31 . *ही शविषसम्यकचारित्र ! अत्र मम सन्निहिवं -भव भव । वषट् । सोरठा-नीर मुगंध अपार, त्रिषा हरै मल क्षय करे। . . सम्यकचारित धार, तेरहविष पूर्वी सदा ॥ १ ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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