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जैनसिद्धांतसंग्रह । [२२६ अमल अखंडित सार, तंदुल चंद्रसमान शुम ।। भवा० ॥ ३॥
ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षतान् निर्वामिः॥शा फूल अनेक प्रकार, महकै अरघलोंके लों ॥ भव ॥१॥
ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय पुप्पं निर्वपामि॥४ नेवन विविध निहार, उत्तम पटरसयुत ॥ भवआ• ॥५॥
. ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय नैवेद्य निर्वपामि ॥५॥ बाति कपूर सुधार, दीपकजोति :सुहावनी ॥ भव० ॥१॥ - ॐ ह्रीं उत्तेमक्षमादिदशलक्षणधर्माय दीपं निर्वामि ॥६॥ अगर धूप विस्तार, फैले. सर्व सुगंधता ॥ भवा०॥ ७ ॥
ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय धूपं निर्वयामि ॥ ७॥ फलकी नाति अपार, प्रान नयन-मनमोहने ॥ भव० ॥८॥
ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय फलं निर्वामि ॥ ८॥ आठों दरव सम्हार, 'द्यानत' अधिक उछाहसों॥ भवआ० ॥९॥ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मायाय निर्वपामि ॥ ९॥
अंगपूजा । सोरठा-'पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें।
धरिये क्षमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥ १.॥
१ कहीं, २ सोरठा कहकर प्रत्येक धर्मको स्थापना करते है और फिर भागेकी चौगई तथा गीता कहकर अर्घ चढ़ाते है और कहीर सोरठाके अन्तमें भी अर्घ चढ़ाते हैं और चौगई गीताके अन्तमें भी भर्ष चंदाते हैं । यथार्थमें सोरठा और चौपाई गीताके अन्तमें एक २ धर्मका अलग २ एक २ अर्घ चढ़ाना चाहिये।
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