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जैनसिद्धांत संग्रह ।
बिसुख बरते नित
अंत अच्युत सुर होय ॥२४॥ बद्रि आव जहां भोग विशाल । सुखमें ज्ञात न जाने काल । थित अवसान तहां तै, चमो । भरतखंड सुमानुष भयो ||१९|| देश अवंती नगर उजैन । पिरथमिल रामा बहुसेन || प्रेमकारिणी राणी सती । तिनके पुत्र भयो शुभमती ॥ २६ ॥ नाम सुधारस परम सुमान रूपवंत गुणवंत महान । यौबन बैस विकार न कोय । भोग 1 सोय ॥२७॥ धर्मकथारसरागी सदा । गीत निरत भावै नहिं ख़ुदा । एक दिना बाड़ी में गयो । बनविहार देखन चित दियो. ॥ २८ ॥ तहां एक जो वृक्ष महान । देखो सघन छांहि छवि: चान || शाखा प्रतिशाखा बहु जास । बहु विधि पंछी पथिक निवास ||२९|| वन विहार कर फिरियो नवै । वज्र दो तरु देख्यो तबै ॥ उर बैराग थयो तिहुकाल । जानो अथिर जगसको ख्याल ॥३०॥ जो नगमें उपजे कछु लाय । सो सब ही थिर रह न कोय । विघटत चार लगे नहीं तास । तन धनकी सब झूठी आस ॥१ ॥ काळ अगनि नगमें लहलहै । सुके तृण सम सबको दहै | यह अनादिकी ऐसी रीत । मोहि उदय समझे विपरीत ||३२|| यह विधि बुद्ध यथारथ भई । परमारथ पथ सन्मुख ठई। राजभोगसों भयो उदास । निस्टह चित्त गयो गुरु पास ॥ ३३ ॥ सतगुरु साख योगपथ लियो । इच्छा छोड़ 1 घोर तप कियो || ध्यान हुताशन हिरद नगी । समता - पवन पाय जगमगी ॥ ३४ ॥ कर्म काठ दाहे बहुभेव । भयो मुक्ति अजरामर देव ॥ .. आतमते परमातम भयो । आवागमनरहित थिर थयो ॥ ३५ ॥ ३१ विघट - विनास होना, विलाय जाना बिगड़ना । ३४ । हुताश-भक्ति ।
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