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जनासवापत
२४.] जैन सिद्धावसंडा
.. अथं षष्टम दाल।
- जिसमें मुनिधर्मका कथन है। . ' रोला छन्द-अथिर ध्याय पर्याय भोगसे होय उदासी। • नित्य निरंजन ज्योति आवमा घटमें भासी ॥ सुतदारादि वुलाव
सर्वसे मोह निवारा । त्यागनगर वनधाम वास बन बीच विचारा ॥१॥ भूषण बसन उतार नम हो मातम चीन्हा । गुरुतटदीक्षा
धार शीश कच लुंच जु कीन्हा । त्रसथावरका घात त्याग मनं ... बच तन लीना । झूठ वचन परिहार गहें नहीं जल विन दीना
॥ चेतन जड़ त्रिय भाग तबो भवभव दुःखकारा। अहि कंचुकि जो तनत चित्तसे परिग्रह डारा ॥ गुप्त पालने कान कपट मन चंच तन नाहीं। पांचों समिति सम्हाल परीषह सहि हैं आहीं ॥३॥ छोड़ सकल जगजाल आपकर आप आपमें। अपने हितको आप किया है शुद्ध नापमें ॥ ऐसी निश्चल कार्यध्यानमें मुनिजन करी । मानो पत्थर रची किषों चित्राम चितरी ॥४॥ चारि 'घातिया घात ज्ञानमें लोक निहारा ॥दे जिन मति उपदेश भव्योंको दुःखसे टारा । बहुरि अधातिया तोड़ समयमें शिवपद पाया। अलख अखंडित ज्योति शुद्ध चेतनि ठहराया ॥५॥ काल अनन्तानन्त नैसे के तैसे रहिहैं । अविनाशी अविकार अचल अनुपमसुख लहिहै । ऐसी भावना भाय ऐसे बों कार्य करे हैं। साही होय दुष्ट काँको हरे हैं ॥६॥ जिनके उर
३ अपि । कंचुकी-सर्पकी कांचली। जैसे सर्प काचलीको पुरानी निकम्मी समझकर त्याग करता है इसी तरह धर्मात्मा पुरुष परिग्रहको भति पापका मूल जानकर त्याग देते हैं। . .
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