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जैनसिद्धांतसंग्रह। १४१. सदीवें ॥१॥ मुख बस्तु अभक्ष न खावें। जिन भाक्ति त्रिकाल: रचावें । मन बच तन कपट निवारे । इंतकारित मोद सम्हारे । जैसे.उपशमित कषांया । तैसा तिन त्याग कराया । कोई सात. व्यसनको त्यागें । कोई अणुव्रत तप लागे। त्रस नीव कमी नहीं मारें। वृथा थावर न संडारें । परहित बिन झूठ न बोलें । मुख सत्य विना नहिं खोलें। जल मृतिका बिन धन सब ही विनं. दिये न लेवें कब ही। व्याही वनिता विन नारी । लघु बहिन बड़ी... महतारी । तृष्णाका जोर संकोचें। जादे परिग्रहको मोचें ।। दिशिकी मर्यादा लावें। बाहर नहीं पांव हलावें । तामें भी पुरसर. सरिता । नित राखत अघसे डरता। सब अनर्थदंड ना करते ।। क्षण २ मिनधर्म सुमरते । द्रव्य क्षेत्र काल शुम भावे । समता सामायिक ध्यावे । प्रोषध एकाकी हो है। निष्किंचन मुनि ज्यों सो हैं। परिग्रह परिणाम विचारें। नित नेम भोगका घारें । मुनि. आवन वेला जावे । तव योग्य अशन मुख लावे । यों उत्तम कारज करता । नित रहत पापसे डरता। जब निकट मृत्यु निज. जाने । तब ही सव ममता भाने । ऐसे पुरुषोत्तम केरा । वुषनन चरणोंका चेरा ॥ वे निश्चय सुर पद पावें । थोड़े दिनमें शिव नावें ॥
अगलित नीर-आसमानसे पड़े हुवे गोले या गड़े, बर्फ वा . अनछाणा पानी इनको नहिं खाना पीना चाहिये।
२ अभक्ष्य जो २२ अभक्ष्य है सो धर्मात्माओंको खाने नहीं चाहिये।
४ सजीव-चलंता हलता जीव । थावर-मिट्टी पानी भाग हवा वनस्पति । मृतकामही।