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. जैनसिद्धांतसंग्रह । [.१३९ बहुरूप काय ॥ धनवान दरिद्री दास राव । यह तो विडम्ब मुझे ना सुहाय ॥ ४ ॥ स्पर्श गंध रसवर्ण नाम | मेरो नाहीं में ज्ञान धाममैं एकरूप नहीं होत और । मुझमें प्रतिविम्बित सकल ठौर ॥५॥ तन पुलकत वर हर्षित सदीव । ज्यों भई रंक गृह.निधि. अतीव । जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय । तब चितपरणति .ऐसी उपाय ॥ ६ ॥ सो सुनो भव्य चित धारकान | वर्णत मैं ताकी विधि विधान ॥ सब करें कान घर माहिं बास। ज्यों भिन्न कमल जलमें निवास ॥ ७ ॥ ज्यों सती अंगमाहीं शृंगार । अति करे प्यार ज्यों नगरनारि ॥ ज्यों धाय चुखवति अन्य बाल ॥ त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥ ८ ॥ जो उदय मोह चारित्रमाव । नहीं होत रंच हू त्यागभाव ॥ तहां करें मन्द खोटे कषाय । घरमें उदास हो अथिर पाय ॥९॥ सबकी रक्षायुत न्याय नीति। जिन शासन गुरुकी दृढ़ प्रतीति ॥ बहु रुले अर्द्धपुद्गल प्रमाण । शीघ्र ही महरत ले परम थान ॥ १० ॥ वे धन्य जीव धनमाग्य सोइ । जिनके ऐसी सुप्रतीति होइ ।। तिनकी महिमा है स्वर्ग लोइ । बुधजन भाषे मोसे न होइ ॥११॥
अथ चतुर्थ ढाल । . इसमें व्यवहार सम्यग्दर्शन कथन है।
सोरठा छन्द-ऊगो आतम सूर दूर गयो मिथ्यात्त्व तम् ।. अब प्रगटो गुणपूर ताको कुछइक कहत हों ॥ शंका मनमें नाहिं तत्त्वारथ श्रद्धानमें | निर्वाधिक चित माहि परमारथमें रत मात्मामें असली भेद नहीं व्यवहार भेद है। इसी हेतु एक अंग (गौण) और एक अंगी (प्रधान) है। शिशु-पालक अवस्था ।