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जनसिद्धांतसंग्रह (१५) सायंकालकी स्तुति हे सर्वज्ञ ज्योतिर्मयागुणमणि बालक जनपर करहु-दया कुंमति निशाअघयारीकारी सत्यं ज्ञानरविछिपा वियागमा क्रांपमान अरुामायाः तृष्णाष्यह वटा मारफिरे बहु और। लूट रहेजिगजीवनक्रो-यह देिखाविद्या तमकानोरंगा समी मारा हमको सूझ नाही ज्ञान खिना सब अंध भये। घटमें आस.विरानों स्वामी बालकजनासनीखड़े नो .:सतपथदर्शकाजनमनहर्षका बटर अंतरयामीलहो। " . श्री: जिनधम हमारा .प्यारा तिसकेतुम.ही स्वामी हो ॥॥ घोर विपतमें आना पड़ा हूं मेरागबेड़ा पार करो। .... शिक्षाका हो घर: आदर: शिल्पकला संचार करो ॥ ५ ॥ मेलमिलाप: बढ़ावाहामक द्वेषमात्र हो घटाघटी। नाहि सतावे किसी जीवको-प्रीति क्षीरकी गटागटी ॥६ मातपिता अरु गुरुजनकी हम सेवा निशदिन क्रिया करें। ' स्वारथ तनकर सुखं दे परको आशिश सबकी लिया करें ॥७॥ आतम.शुद्ध हमारा होय.पापभैल नहिं चढ़े कदा।। विद्याकी हो उन्नति, हममें धर्मज्ञान हू बढ़े सदा ॥ ८॥ दोऊ कर जोड़े बालक ठाड़े करें प्रार्थना सुनिये तात। . सुखसे वीते न हमारी.जिनमतका हो शीघ्र प्रभात ॥९॥ मातपिताकी.आज्ञा पालें गुरुकी भक्ति घरे उरमें । । रहें सदा हम करतव्य.तत्पर उन्नति करदें 'पुरपुरमें ॥1 ॥