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जैन सिद्धान्त दीपिका
३५. कर्मों के उदय एवं परिणाम से निष्पन्न होने वाले भाव भी जीव के स्वरूप हैं।
उदीरणाकरण के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से भाठों कर्मों का जो अनुभव होता है, उसे उदय कहते हैं । उससे होने वाली आत्मा की अवस्था को औदयिक भाव कहते हैं। ____ अपने-अपने स्वभाव में परिणत होने को परिणाम कहते हैं। उससे होने वाली अवस्था को अथवा परिणाम को ही पारिणामिक भाव कहते हैं।
३६. औपमिक भाव दो प्रकार का होता है :
१. औपमिक सम्यक्त्व २. औपशमिक चारित्र
३७. क्षायिक भाव के निम्न प्रकार हैं :
केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अप्रतिहतशक्ति आदि ।
३८. क्षायोपमिक भाव के निम्न प्रकार हैं :
जान, अज्ञान, दर्णन, दृष्टि, चारित्र, मंयमासंयम, शक्ति आदि।
३६. औदयिकभाव के निम्न प्रकार हैं :
अज्ञान (जानाभाव), निद्रा, मुख-दुःख, आथव, वेद, आयु, गति, जाति, शरीर, लेश्या, गोत्र, प्रतिहतशक्ति, छप्रस्थता, असिद्धत्व आदि।