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जैन सिद्धान्त दीपिका
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सब समुद्घातों में आत्मप्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और उनसे सम्बन्धित कर्मपुद्गलों का विशेष रूप से परिशाटन (निर्जरण) होता है। ___ केवलिसमुद्घात के समय आत्मा समूचे लोक में व्याप्त होती है। उसका कालमान आठ समय का है । केबलि-समुद्घात के समय केवली समस्त आत्मप्रदेशों को फैलाता हुआ चार समय में क्रमशः दण्ड, कपाट, मन्थान और अन्तरावगाह (कोणों का स्पर्ण) कर समग्र लोकाकाश को उनसे पूर्ण कर देता है और अगले चार समयों में क्रमशः उन आत्मप्रदेशों को समेटता हुआ पूर्ववा देहस्थिन हो जाता है।
इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक योग; दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक मिश्रयोग तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण योग होता है।
३१. औपपातिक, चरमशरीरी, उत्तमपुरुप और असंख्य वर्ष की
आयुवाले निरूपक्रमायु होने हैं।
उपक्रम का अर्थ हैं-अपवर्तन या अल्पीकरण।
जिनकी आयु गाढ बन्धन से बंधी हुई होने के कारण उपक्रमरहित होती है, उन्हें निम्पत्रमायु कहते है।
नारक और देव औपातिक होते हैं। उमी भव में मोक्ष जाने वाले को चरमशरीरी कहते हैं। चक्रवर्ती आदि उनमपुम्प कहलाते हैं।
यौगलिक मनुष्य और यौगलिक नियंञ्च असंख्य वपंजीवी होते हैं।