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श्रीकृष्ण-कया-नवकार मन्त्र का दिव्य प्रभाव
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यह सुनकर वह विद्याधर कृतज्ञता प्रकट करके चला गया और मैं अपने घर लौट आया।
युवावस्था मे प्रवेश करने के बाद माता-पिता ने मेरा लग्न मित्रवती के साथ कर दिया । मित्रवतो मेरे मामा सर्वार्थ की पुत्री थी। मेरी चित्तवृत्ति कला और विद्याओ मे थी इस कारण स्त्री में आसक्त न हो मका ।-पिता ने मेरे इस व्यवहार को बदलने के लिए श्र गारपरक साधन जुटा दिये। उपवन आदि मे घूमते-फिरते एक दिन मेरी भेट कलिगसेना की पुत्री वमन्तसेना वेश्या मे हो गई। उसके पास मैं बारह वर्ष तक रहा और पिता की सोलह करोड स्वर्ण मुद्राएँ वरवाद कर दी । कगाल जानकर कलिगसेना ने मुझे घर से निकाल दिया।
वेश्या के घर से निकल कर अपने घर आया तो माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था। व्यापार के लिए धन शेष नही था। निदान अपनी पत्नी के आभूपण लेकर मामा के साथ उगीरवर्ती नगरी मे आया। वहाँ आभपण वेचकर कपास खरीदा। कपास लेकर ताम्र लिप्ती नगरी जा रहा था कि मार्ग में दावानल मे सब कुछ स्वाहा हो गया। मामा ने भाग्यहीन समझ कर मुझे त्याग दिया। ____ अश्व की पीठ पर बैठकर मैं अकेला ही पश्चिम दिशा की ओर चल दिया। मार्ग मे मेरा घोडा भी मर गया । अव पैदल ही चलता हुआ भूख-प्यास से व्याकुल प्रियगु नगर मे जा पहुंचा। __वहाँ पिता के मित्र सुरेन्द्रदत्त मुझे अपने घर ले गये । कुछ दिन सुखपूर्वक रहकर मैंने उनमे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ व्याज पर ली और वाहन भरकर समुद्र मार्ग से व्यापारार्थ चल दिया। यमुना द्वीप तथा अन्य द्वीपो मे मेरा माल अच्छे लाभ से विका। अव मेरे पास आठ करोड स्वर्ण मुद्राएँ हो गइ । उन सब को लेकर समुद्र मार्ग से अपने नगर की ओर चला तो वाहन टूट गया। सारा उपार्जित धन तो समुद्र के गर्भ मे समा गया और मेरे हाथ लगा एक लकडी का तख्ता । जीव को प्राण सबसे ज्यादा प्यारे होते है । उस लकडी के मामूली से