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जैन कयामाला भाग ३१
तो था मैं । मैने अपने बुद्धि बल का प्रयोग किया। तीनो पोटलियो को उठा लाया । एक के प्रयोग से वे कीले निकल गई, दूसरी से उसके घाव भर गये और तीसरी ने उसे सचेत कर दिया। __ मैं अपनी सफलता से प्रसन्न हो गया। उस पुरुप ने आँखे खोलते ही मुझे सामने खडा पाया तो मेरी ओर ध्यान से देखने लगा। मैने उससे पूछा
महाभाग ! आप कौन है और आपकी यह दशा किसने की ? वह पुरुप बताने लगा
-उपकारी | वैतादयगिरि पर शिवमदिर नगर के राजा महेन्द्रविक्रम का पुत्र में अमितगति विद्याधर हूँ। एक वार वूमगिख और गौरमुड नाम के दो मित्रो के साथ क्रीडा करता हुआ हिमवान पर्वत पर जा पहुंचा। वहाँ हिरण्यरोम नाम के मेरे तपस्वी मामा की सुन्दर पुत्री सुकुमालिका मुझे दिखाई दे गई। मेरे हृदय मे उसके प्रति अनुराग तो उत्पन्न हुआ किन्तु मैने कुछ कहा नही। लौटकर अपने नगर को आ गया। मित्रो ने मेरा मनोभाव पिता को कह सुनाया और पिताजी ने मेरा विवाह सुकुमालिका के साय कर दिया। हम दोनो पति-पत्नी परस्पर मनोरजन करते और सुख से दिन विताते । __ मेरे मित्र धूमशिख के हृदय मे भी सुकुमालिका के प्रति काम भाव जाग्रत हो गया था। उसकी कुचेष्टाएँ समझ तो मैं भी गया किन्तु मैंने कुछ ध्यान नहीं दिया। एक दिन मैं अपनी पत्नी तथा मित्र धूमगिख के साथ यहाँ आया। अंसावधान जानकर उसने मुझे तो अचत करके वधनो मे जकड दिया और सुकुमालिका का हरण करके ले गया।
मित्र | तुमने मुझे इस महाकप्ट से बचाया है। इस उपकार के वदने मैं तुम्हारा क्या काम करु ? मैंने उससे कह दिया--
-आपके दर्शनो से ही मैं कृतार्थ हो गया । मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं।