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________________ k जैन कथामाला नाग ३१ तीसरे मास भी क्षमा माँग कर राजा ने तापस को भोजन हेतु गया और तापम पुन निराग भूल निमंत्रित किया । राजा पुन वापिस लौट आया । १० तापस को तीन महीने हो गये निराहार । क्षुधा की तीव्र वेदना से उसके प्राण कठ तक आ गये। उसने क्रोध में आकर निदान किया'इस तपस्या के फलस्वरूप में अगले जन्म मे इस राजा को मारने वाला वनूँ ।' राजा उग्रसेन ने अपने प्रमाद के कारण व्यर्थ ही तापस को अपना शत्रु वना लिया । ' तापम ने अनशन स्वीकार करके मरण किया और उग्रमेन की पटरानी धारिणी के गर्भ मे अवस्थित हो गया । Gas ज्यो-ज्यो गर्भ वढने लगा, रानी की प्रवृत्तियो मे क्रूरता आने `लगी । उसे एक विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ - 'मैं अपने पति के उदर 'का माम खाऊँ ।' अपने इस क्रूर दोहट को वारिणी किसी से कह भी नही सकती थी । वह ज्यो- ज्यो अपनी इच्छा दवाती त्यो त्यो वह प्रवल से प्रवलतर होती जाती । इस कशमकश में रानी दुर्बल होने लगी । राजा के बहुत आग्रह पर रानी ने अपना दोहद बताया, तव मत्रियो ने शशक (खरगोग ) का मास राजा के उदर पर रख कर काटा। राजा ने ऐसा आर्तनाद किया मानो उसी के पेट से मास काटा जा रहा हो । रानी ने अपना दोहद पूरा किया | दोहद पूरा हो जाने के बाद रानी का विवेक जाग्रत हुआ । घोर पञ्चात्तापपूर्ण स्वर मे कहने लगी - अब मेरा जीवित रह कर क्या होगा ? अत्यधिक शोकावेग मे रानी ने मरने का निश्चय कर लिया । रानी के इस निर्णय को जानकर मंत्रियो ने आश्वासन दिया १ इसी प्रकार का घटना प्रसंग श्रेणिक एवं णिक के पूर्व भवो का भी है ।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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