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श्रीकृष्ण कथा -- चमत्कारी मेरी
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श्रेष्ठी; वह इतने समय तक प्रतीक्षा कैसे कर सकता था ? जा पहुँचा सीधा भेरी रक्षक के पास । उसे अपनी स्थिति बताई और भेरी मे से एक छोटा सा टुकडा देने का आग्रह किया। पहले तो रक्षक 'ना, ना' करता रहा किन्तुं जेव एक लाख दीनार उसको मिल गई तो एक छोटा सा टुकडा काट कर दे दिया। श्रेष्ठी ने उसे घोटकर पिया और नीरोग हो गया । रक्षक ने उतना ही वडा चंदन की लकडी का टुकडा लगाकर भेरी को पूरा कर दिया ।
अव तो रक्षक को धनवान बनने का और रोगियो को रोगमुक्त होने का अचूक उपाय मिल गया । रक्षक भेरी के टुकडे काट-काटकर देता रहा । गर्ने -शन पूरी भेरी ही चन्दन की हो गई । दिव्य भेरी के टुकड़े तो धनवान ले ही गए ।
छह माह बाद वासुदेव ने भेरी वजाई तो उसमे से मशक की सी ध्वनि निकली । नगरी की तो बात ही क्या सभाभवन भी न गूँज सका । ध्यानपूर्वक भेरी को देखा तो सब रहस्य समझ गए। रिश्वत - खोर कर्तव्यच्युत रक्षक को प्राण दण्ड दिया और अप्टम तप करके पुन. चमत्कारी भेरी प्राप्त की ।
इस बार वासुदेव ने इस रिश्वत का मूल कारण ही मिटाने का प्रयास किया। उन्होंने सोचा - रोगमुक्त होने के लिए लोग बाहर से आएँगे ही और लोभ देकर वह अनाचार कराएँगे ही। अत उन्होने वैतरण और धन्वन्तरि दो वैद्यो को आज्ञा दी कि वे लोगो की व्यावि की चिकित्सा किया करे ।
वैतरणि तो भव्य परिणाम वाला था अत लोगो की योग्यता और सामर्थ्य के अनुमार औपधि देता किन्तु धन्वन्तरि पापमय चिकित्सा करता । यदि कोई सज्जन पुरुष कहता भी कि यह औपधि अभक्ष्य है मेरे खाने योग्य नही तो वह टका सा जवाव दे देता – साधुओ के योग्य वैद्यक शास्त्र मैने नही पढा । मेरे पास जैसी औषधि है लेनी हो तो लो, नही तो कही और जाओ; मैं क्या करूँ ।
इस प्रकार वैतरणि और धन्वन्तरि दोनो ही द्वारका मे वैद्यक करने लगे ।