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जैन कथामाला
भाग ३३
- हो क्यो नही सकता ? हम दोनो वाहुयुद्ध करके जय-पराजय का निर्णय करले ।
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- नही, यह नही हो सकता । मै अधम युद्ध नही करता । तू घोड़े को ले जा । - वासुदेव ने निर्णीत स्वर मे कहा ।
देव प्रसन्न हुआ । उसने अपना असली रूप प्रगट करके वरदान माँगने को कहा। वासुदेव ने कहा
- यो तो मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नही हैं किन्तु इस समय द्वारका मे रोग बहुत फैल रहे है । इनको गात करने का कोई उपाय बताओ ।
देव ने एक भेरी देकर कहा
-कृष्ण । इस भेरी को बजाते ही रोग शांत हो जाएंगे और छह महीने तक कोई नई बीमारी नहीं होंगी ।
भेरी पाकर कृष्ण ने उसे बजाया । सेग शांत हो गए ।
हर छह महीने वाद वासुदेव भेरी बजा देते और प्रजा रोगमुक्त रहती । छह महीने के लिए भेरी उसके रक्षक के पास सुरक्षित रख दी जाती ।
अद्भुत वस्तुओ की महिमा स्वत ही फैल जाती है और यदि वे लोकोपकारी हो तो बहुत ही शीघ्र । भेरी की महिमा भी शीघ्र ही चारो ओर फैल गई । दाह ज्वर से पीडित एक श्रेष्ठी द्वारका आया । किन्तु उसे कुछ विलव हो गया। कुछ ही दिन पहले भेरी बज चुकी थी । लोगो ने बताया अब छ महीने तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी । किन्तु एक तो वह दाहज्वर का रोगी - जिसमे किं शरीर सदैव ही अगारे के समान तपता रहता है, तीव्र वेदना होती है और फिर धनवान
१ वासुदेव और चोर का युद्ध अधम युद्ध था । इसी प्रकार शस्त्ररहित पर शस्त्र से चोट करना, युद्ध मर्यादा के विपरीत अगो-जैसे उदर आदि पर धान करना, भागते हुए, पीठ दिखाते हुए, शत्रुओ पर चोट करना, छिपकर चोट करना युद्ध कहलाते हैं ।
क्षमा माँगते हुए आदि
आदि- यह मव अधम