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________________ श्रीकृष्ण-कथा-गजसुकुमाल ३०५ को दया आ गई। वे स्वय हाथी से उतरे और उन ई टो को पहुंचाने लगे। उन्हे ईट उठाते देखकर सेवकगण भी इस कार्य मे जुट पड़े और वृद्ध पुरुष की ई टे पलक झपकते ही अन्दर पहुँच गई। श्रीकृष्ण को इस घटना की स्मृति हो आई किन्तु फिर भी उनके हृदय मे उस व्यक्ति को देखने जानने की लालसा रही, यद्यपि उनका क्रोध शान्त हो चुका था। उन्होने पूछा -भगवन् ! मैं उस व्यक्ति को देखना चाहता हूँ। -जव तुम यहाँ से वापिस जाओगे तो वह पुरुष नगर प्रवेश के समय मिलेगा और तुम्हे देखते ही मर जायगा । -भगवान ने वता दिया। इधर सोमिल को जब ज्ञात हुआ कि वासुदेव अरिष्टनेमि के पास गए है तो उसने समझ लिया कि मेरा कुकृत्य अब छिप नही सकेगा। प्राण वचाने हेतु वह अरण्य की ओर जाने लगा । तभी वासुदेव ने नगर मे प्रवेश किया। भयभीत होकर वह उनके हाथी के सामने जा गिरा और उसके प्राण पखेरू उड गये। वासुदेव समझ गए कि यह वही दुष्ट है जिसने मुनि गजसुकुमाल पर उपसर्ग किया था। उन्होने उसके शव को वन मे फिंकवा दिया। गजसुकुमाल के शोक से व्यथित होकर अनेक यादवो ने सयम स्वीकार कर लिया। वसुदेव के अतिरिक्त नौ दशाह भी दीक्षित हो गए। प्रभु की माता शिवादेवी, नेमिनाथ के सात सहोदर, कृष्ण के अनेक कुमार प्रबजित हुए। कम की पुत्री एकनाशा के साथ अनेक यादव कन्याएँ, देवकी, रोहिणी और कनकवती के अतिरिक्त वसुदेव की समस्त स्त्रियाँ साध्वी हो गई । कनकवती ने घर मे रहकर भी ससार की स्थिति का चितवन करते हुए घाती कर्मो का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त किया। देवो ने जव उसका कैवल्योत्सव मनाया तव लोग चकित रह गए । कनकवती उसके पश्चात् साध्वीवेश धारण करके नेमिप्रभु के समवसरण मे गई और एक मास का अनशन करके मोक्ष प्राप्त किया।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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