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जैन कथामाला भाग ३३
मृत-पुत्रो को । देव मृत-पुत्र तुम्हारे पास रख आता और तुम्हारे जीवित पुत्र मुलसा को दे देता । हे देवकी | जिन मुनियो को तुमने आज भोजन से प्रतिलाभित किया वे तुम्हारे ही पुत्र है।
देवकी का सगय मिट गया । उसने अपने छहो पुत्रो-मुनि अनीकयगा, अनन्तसेन, अजितसेन, निहितगत्रु, देवयशा और शूरसेन की वन्दना की। उसका मातृ-हृदय उमड आया । कहने लगी. -पुत्रो ! तुमने जिनदीक्षा ली यह तो बहुत अच्छा किया। मैं वहुत प्रसन्न हूँ किन्तु मेरा नातृत्व निष्फल गया। सात पुत्र जने किन्तु एक को भी गोदी मे लेकर खिलाया नही--जी भरकर प्यार नहीं किया । .
प्रभु ने कहा
-देवकी । खेद क्यो करती हो.? पूर्वजन्म मे किये कर्मो का फल तो भोगना ही पड़ता है।
-ऐसा क्या पाप किया था, मैने ? । —तुमने अपनी सपत्नी के सात रत्न चुरा लिए थे । जव वह बहुत रोई तो एक वापिस किया। इसलिए तुम्हारे भी छह रत्न तुमसे विछड गये। सिर्फ एक ही तुम्हारे सामने हैं।
देवकी अपने कर्मों की निन्दा करते हुए प्रभु को नमन करके घर चली आई । कृष्ण ने माता को उदास देखा तो पूछा
-माता | उदास क्यो हो? -पुत्र | मेरा तो जीवन ही व्यर्थ गया। -क्या हुआ ?
-वत्स ! उस स्त्री का भी कोई जीवन है जो अपने पुत्र को अक मे लेकर प्यार न कर सके ? पुत्र की वाल-लीलाओ से जिसका आँगन न गंजा, उस माँ का घर श्मशानवत् ही है। .
कृष्ण ने माता के हृदय की पीडा समझी। पूछा-आपकी यह इच्छा कैसे पूरी हो सकती है ?