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जैन कथामाला भाग ३३
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को भुजाओ से तैर कर पार कर लिया । जान पडता है, तुमने जानदूझकर राजा पद्मनाभ को परास्त नही किया ।
- हमने तो गंगा महानदी नौका मे बैठकर पार की । - पाडवो ने ने बतलाया |
- फिर वह वापिस क्यो नही छोडी ?
- आपके वल की परीक्षा करना चाहते थे, इसलिए । – कहते-कहते पाडवो के मुख पर मुस्कान खेल गई ।
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श्रीकृष्ण ने इस मुस्कान को व्यग समझा और वे भडक कर वोले- मेरे वल की परीक्षा ! जब मैंने दो लाख योजन लवण समुद्र को पार किया, पद्मनाभ को मर्दित किया, अमरकका नगरी को पाद- प्रहार से ध्वस्त कर दिया और द्रौपदी को लाकर तुम्हे सौप दिया - तब भी तुम्हे मेरा बल नही दिखा । अब देखो मेरा वल !!
यह कहकर वासुदेव ने लोह दण्ड से उनके रथो को चूर-चूर कर दिया। उसी समय उनके निर्वासन की आज्ञा देते हुए बोले
- यह है मेरा माहात्म्य !
वासुदेव की वक्र -भगिमा को देखकर पाडव सहम गए। उनके से एक शब्द भी न निकल सका। वे क्षमायाचना भी न कर
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मुख पाए ।
उस स्थान पर रथमर्दन नाम का नगर बस गया ।
श्रीकृष्ण वहाँ से चले गए और अपनी सेना के साथ द्वारका जा
पहुँचे ।
पाडव भी निरागमुख हस्तिनापुर पहुँचे । उन्होंने मुरझाए चेहरो से अपने निर्वामन की आज्ञा माता कुन्ती को बतला दी ।
- तुमने वासुदेव श्रीकृष्ण का अप्रिय करके बहुत बुरा किया | यह कह कर कुन्ती ने पुत्रो की भर्त्सना थी । पाडवो ने दुखी स्वर मे - क्षमायाचना सी करते हुए माता से कहा
माँ ' हम से भूल तो हो ही गई । अब तुम्हीं द्वारका नगरी जाओ और वासुदेव मे पूछो कि हम लोग कहाँ रहे
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