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जैन कथामाला भाग ३१
वह अपनी निदा करने लगा। उसकी निदा का भाव इतना तीव्र हुआ कि वह आत्महत्या को तत्पर होकर एक उपवन मे आया । __उपवन मे उसे सुस्थित मुनि दिखाई पड गये। नदिषेण ने उनकी वटना की। मुनि ने अपने विशिष्ट ज्ञान से उसके मनोभाव जान लिए । उसे आत्महत्या से विरत करते हुए बोले
-~-भद्र | आत्महत्या का दुस्साहस मत करो। इससे तो तुम्हारे दुख जन्म-जन्मान्तर तक के लिए बढ जायेगे ।
नदिपेण की आँखे नम हो आयी। मुनिराज ने उसके मनोभावो को उजागर जो कर दिया था। बोला
-मैं क्या करूँ, नाथ | सर्वत्र मेरा तिरस्कार हो होता है। जीवन भार हो गया है इस संसार मे ।
-जीवन के भार को उतारने के लिए धर्म का आश्रय लो। कुछ देर तक तो नदिपेण सोचता रहा, फिर बोला
-मैं आपकी शरण मे हूँ गुरुदेव । मुझे प्रवजित करके धर्म का मर्म बताइये। __मुनि सुस्थित ने उसे प्रवजित कर लिया और धर्म का मर्म वताया-सेवा, वैयावृत्य ।
नदिपेण ने भी प्रवजित होकर साधुओ की वैयावृत्य करने का अभिग्रह ले लिया। अब वह बाल और ग्लान मुनियो की वैयावृत्य विना ग्लानि करने लगा। साधु-सेवा ही उसका धर्म वन गया। वह शातचित्त होकर मुनि-सेवा करता और मन मे सतोष पाता।
एक दिन देवराज इन्द्र ने अपनी सभा मे नन्दिषेण की अग्लान साधु-सेवा की बहुत प्रशसा की। एक देव को इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह रत्नपुर के बाहर वन मे आया और ग्लान-मुनि के रूप में प्रकट हो गया। एक अन्य मुनि का रूप रख कर नन्दिषण मुनि के स्थान पर गया। उस समय नदिपेण पारणे के लिए बैठकर पहला ग्रास खाने ही वाले थे, तभी मुनि ने आकर कहा
हर वन मे आकावात पर वि
गया। एक