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श्रीकृष्ण-कथा-प्रद्य म्न का द्वारका मागमन
२३५ महल की ओर चली गई। श्रीकृष्ण भी रूठी रानी को मनाने पीछेपीछे ही उसके महल मे जा पहुँचे।
प्रद्यम्न तो द्वारका मे कौतुक कर रहा था और उधर नारदजी रथ मे बैठे-बैठे ऊब गए । ढाई घडी से ज्यादा एक जगह न टिकने - वाले नारद निठल्ले वैठे भी कैसे रह सकते थे। राजकन्या से 'अभी
आता हूँ' कहकर सीवे रुक्मिणी के महल मे जा पहुंचे। रुक्मिणी ने मुनि का स्वागत करके पूछा___-देवर्षि ! अव तो सोलह वर्ष बीत गए। मेरा पुत्र ।
-यह बैठा तो है। क्या इसने अभी तक नही बताया। -नारद जी ने उस सावु की ओर सकेत किया। ___ रहस्य खुल गया प्रद्युम्न का। वह अपने असली रूप में आ गया । माता के चरणो मे गिर पड़ा। माँ ने अक से लगा लिया। सोलह वर्ष से माँ के प्यार की भूखी प्रद्युम्न की आत्मा तृप्त हो गई। उसने कहा
-~-माँ | तुम साथ दो तो पिताजी को चमत्कार दिखाऊँ।
–हाँ। हाँ ।। क्यो नही ? -आनदातिरेक मे रुक्मिणी ने स्वीकृति दे दी। __ प्रद्युम्न रुक्मिणी को साथ लेकर आकाग मे उडा और घोष किया
__-द्वारकाधीश कृष्ण और सभी सुभट सुन ले । मैं महारानी रुक्मिणी का हरण करके ले जा रहा हूँ । सास हो तो मुझे रोके ।।
पुत्र की इस घोषणा से रुक्मिणी हतप्रभ रह गई । उसे स्वप्न मे भी आशा न थी कि पुत्र ऐसा चमत्कार दिखाएगा। उसने कुछ कहना चाहा तो प्रद्युम्न ने रोक दिया। वोला
-कुछ समय तक मौन रहकर जरा तमाशा देखो। तव तक द्वारका मे शोर मच गया । सुभट अस्त्र-शस्त्र लेकर