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विद्याएँ दी थी और मैं उनकी इच्छा पूर्ण किए बिना ही यहाँ चला आया।
कालसवर को बहुत दुख हुआ। उसने प्रद्युम्न की प्रशसा की और घर वापिन चलने का आग्रह । तभी नारदमुनि आकाश-मार्ग से घूमते-घामते वहाँ आ पहुँचे और प्रद्युम्न को उसके वास्तविक मातापिता का परिचय देकर कहा
-प्रद्युम्न । अव तुरन्त ही द्वारका चलने की तैयारी करो। कालसवर ने पूछा
-तुरन्त ही क्यो मुनिवर । नारद ने बताया
-इसकी माता रुक्मिणी और विमाता सत्यभामा मे यह शर्त तय हुई थी कि जिसके पुत्र का विवाह पहले होगा दूसरी अपने केश काट कर उसको देगी। सत्यभामा के पुत्र भानुक का विवाह गीघ्र ही होने वाला है । अत केशदान के अपमान और पुत्रवियोग के कारण रुक्मिणी का प्राणान्त निश्चित है।
माता का अपमान हो जाय और प्रद्युम्न जैसा पुत्र देखता रह जाय-यह कैसे सभव था। उसने तुरन्त कालसवर से उसके चरण छूकर विदा ली और विद्यावल से रथ का निर्माण कर नारद के साथ द्वारका आ पहुँचा । द्वारका के समीप आते ही नारद ने कहा
-वत्स ! यह तुम्हारे पिता श्रीकृष्ण की नगरी है। इसका निर्माण सुस्थित देव ने किया है और कुबेर ने धन एव रत्नो से इसे परिपूर्ण कर दिया है। प्रद्युम्न को विनोद मूझा । उसने कहा
-मुनिवर | आप कुछ समय तक विमान मे ही विश्राम कीजिए तब तक मैं नगर मे कुछ कौतुक कर आऊँ ।
नारद तो कौतुक प्रेमी थे ही, तुरन्त हँसकर स्वीकृति दे दी। प्रद्युम्न चला तो सीधा' वही पहुंचा जहाँ भानुक के साथ परणी