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प्रद्युम्न का द्वारका आगमन
विद्यावर कालसवर और उसकी रानी कनकमाला के प्यार-दुलार मे पलता हुआ प्रद्य म्न युवा हो गया। उसकी आयु सोलह वर्ष की हो गई । अग-सौप्ठव वढ गया। उसको प्यार से बुलाकर कनकमाला ने अपने पार्श्व मे विठाया। सहजभाव से प्रद्युम्न बैठ गया। कनकमाला उसके गरीर पर हाथ फेरने लगी किन्तु आज का स्पर्श और प्यार माँ का वात्सल्य न होकर कामिनी का कामोत्तेजक उन्माद था । प्रद्य म्न माता के हाव-भाव और विचित्र चेष्टाओ को ध्यानपूर्वक देखने लगा।
-प्रद्युम्न अव तुम युवा हो गए हो। मेरे साथ भोग करो - कनकमाला ने काम याचना की।
सुनते ही प्रद्युम्न चकित रह गया। उसने कहा
-ऐसा पाप । घोर अनर्थ ! आप मेरी माता है, फिर भी यह भावना ? लज्जा आनी चाहिए।
-~- मैं तुम्हारी माँ नही हूँ। तुम न जाने किसके पुत्र हो । अग्निज्वालपुर से आते समय तुम मार्ग मे मिल गए थे। मैंने तो पालन हो किया है।
-पालन करने वाली भी माँ ही होती है।
-और उसका पहला अधिकार भी होता है। देखो, माली वृक्ष का पालन करता है और फल आने पर वही उनका उपभोग भी।कनकमाला ने तर्क दिया।
-वृक्ष और पुत्र दोनो की समानता नही हो सकती। तुम्हारी यह इच्छा सर्वथा अनुचित है।
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