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श्रीकृष्ण-कथा--द्रौपदी स्वयवर
२२१ अब सागरदत्त ने कहा-मैं क्या करूं ? तुम्हारे पाप का उदय है । अब तो तुम धैर्य ही रखो और विवाह की आशा त्याग दो।
सुकुमारिका ने भी पिता का कथन स्वीकार कर लिया। धर्म मे तत्पर रहने लगी। एक वार गोपालिका नाम की साध्वी उसके घर आई तो उसने स यम ग्रहण कर लिया और गुरुणी के साथ छट्ठम-तप करने लगी। एक वार उमने गुरुणी से पूछा- यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं सुभूमिभाग उद्यान मे सूर्य आतापना' लू । गुरुणी ने कहाउपाश्रय से वाहर मूर्य आतापना लेना साध्वी को नही कल्पता, ऐसा आगम का वचन है । किन्तु वह न मानी और मुभूमिभाग उद्यान मे आतापना लेने लगी।
उद्यान मे उसका ध्यान हास्य और विनोद की आवाजो से भग हो गया। सूर्यविम्व पर से दृष्टि आवाज की ओर घूम गई। देखादेवदत्ता नाम की वेश्या अपने प्रेमियो के साथ बैठी विनोद कर रही है। एक ने उसे अक मे ले रखा है, दूसरा उसके सिर पर छत्र रख रहा है, तीसरा अपने वस्त्रो से पग्वा झल रहा है, चौथा उसका केश शृङ्गार कर रहा है और पाँचवाँ उसके चरण पकडे वैठा है। सुकमारिका की मोई वासना जाग उठी। उसे वेश्या के भाग्य से ईर्ष्या हुई । वासना के तीब्र आवेग में उसने निदान किया-'इस तपस्या के फलस्वरूप में इस वेश्या के समान ही पाँच पति वाली बनूं ।'
इसके पश्चात् उसकी प्रवृत्ति ही बदल गई । वह अपने शरीरशृगार की ओर ध्यान देने लगी । गुरुणीजी ने वर्जना दी फिर भी वह न मानी और उपाश्रय से अलग रहने लगी। कालधर्म पाकर सौधर्म स्वर्ग मे देवी बनी ओर वहाँ से च्यत्र कर द्रौपदी हुई है।
मुनिश्री ने द्रौपदी के पूर्वभव वताकर कहा-कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है । द्रौपदी कृतनिदान है ।
५ सूर्य आतापना मे कायोत्सर्गपूर्वक सूर्यविम्ब को अपलक दृष्टि से देखा
जाता है । यह नप का एक प्रकार है।