SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६. जैन कथामाला भाग ३२ गिरि के भूतरमण उद्यान की टक गिला पर ले जाकर गिगु को उसने रख दिया और फिर सोचने लगा-'इस बालक को गिला पर पटक कर मार डालूँ । अरे नहीं ! तव तो बहुत दुख होगा। यह रोयेगा, चिल्लायेगा और सम्भव है मुझे ही दया आ जाय । तब ऐसा करूं कि इसे यो ही पड़ा छोड़ जाऊँ। भूख-प्यान मे तडप-तडप कर अपने आप मर जायगा।' यह सोचकर देव उस बालक को वही छोड कर चला गया। किन्तु वह वालक निरुपक्रम जीवितवाला' और चरमदेही था। प्रात काल कालसवर नाम का एक विद्याधर राजा अग्निज्वाल नगर से विमान द्वारा अपने नगर की ओर जा रहा था। उसका विमान आकाश मे अचानक ही रुक गया। विद्याधर ने नीचे की ओर देखा तो अति तेजस्वी शिशु शिला पर क्रीडा करता दिखाई दिया। उसने विचार क्यिा-'मेरे विमान की गति को रोकने वाला यह कोई महा पुण्यवान जीव है।' विद्याधर ने शिशु को अङ्क मे उठाया और अपनी पत्नी कनकमाला को सौप दिया। कनकमाला तेजस्वी पुत्र को अङ्क मे लेकर धन्य हो गई। अपनी राजधानी मेघकूट नगर मे जाकर विद्याधर राजा कालसवर ने विज्ञप्ति कराई कि 'मेरी रानी गूढगर्भा थी और उसके उदर से यह तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ है।' __ राजा और प्रजा दोनो ने पुत्र का जन्मोत्सव किया और शिशु का नाम प्रद्युम्न रखा। प्रद्युम्न को अङ्क मे लेकर विद्याधर राजा कालसंवर और रानी कनकमाला खुशी से फूले न समाते और इधर रुक्मिणी रानी और १ किमी प्रकार से भी नष्ट न होने वाली आयु निरुपक्रम जीवित वाली आयु कहलाती है । ऐसी आयु वाला जीव अपना आयुष्य पूर्ण करके ही मरता है। २ उमी भव मे मोक्ष हो जाय ऐमा शरीर चरमदेह कहलाता है और उसको पाने वाला जीव चरमदेही ।।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy