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श्रीकृष्ण - कथा - मातृ-भक्ति
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यशोदा ने वलराम की बात अनसुनी कर दी । वह आलस्यवश बैठी रह गई । कुछ क्षण तो वलराम प्रतीक्षा करते रहे और फिर उनका स्वामी भाव जाग उठा । त्यौरी चढाकर रूखे स्वर मे बोले- यशोदा | क्या तू अपना पूर्व दासी भाव भूल गई । जो हमारी आज्ञा-पालन मे विलम्व कर रही है ।
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'दासी' शव्द श्रीकृष्ण के कलेजे मे तीर की तरह चुभ गया । उनका मुख मुरझा गया । यशोदा को स्वप्न मे भी आशा न थी ऐसी वात सुनने की । वह अवाक् रह गई ! पुत्र के समान आयु वाले वलराम के एक ही गब्द ने आज स्वामी -सेवक सबध उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया । वह तो भूल ही चुकी थी कि कृष्ण उसके स्वामी का पुत्र है । कृष्ण के एक 'मैया' शब्द ने उसे मातृत्व के गौरव से विभूति कर दिया था । किन्तु स्वामी, स्वामी ही रहता है, उसके पुत्र भी स्वामी होते है और सेवक सदा सेवक ही; चाहे वह अपने उदर के शिशु का भी स्वामी के लिए बलिदान कर दे ।
यशोदा इन विचारो मे खोई रही । वलराम ने कृष्ण से कहा- चलो यमुना मे स्नान कर आये ।
कृष्ण अग्रज के पीछे-पीछे चल तो दिए किन्तु उनके कदम पीछे को लौट रहे थे, हृदय शोकाकुल था । यमुना तट पर पहुंच कर बलराम ने देखा कि अनुज का मुख उतरा हुआ है । प्यार से बोले-कृष्ण | तुम्हारा मुख निस्तेज क्यो है ?
- मेरी माता को आप दासी कहे और मैं सुनकर प्रसन्न हो जाऊँ, यही चाहते है, आप ?
वलराम अनुज के आक्रोश का कारण समझ गए । समझाने लगे-भद्र | अभी तुम्हे इस रहस्य का ज्ञान नही है ।
- क्या रहस्य है, वताइये ।
कृष्ण को अग्रज वलराम ने प्रारम्भ से अन्त तक पूरी घटना बता दी और कहा