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जैन कथामाला भाग ३२
वृक्षो की शाखाएं हिलने से पत्तो की मधुर खडखड की ध्वनि होने लगी । विद्यावर सूर्पक का पुत्र वृक्षो के रूप में भाँति भाति की चेष्टाओ से बालक कृष्ण को आकर्षित करने लगा ।
वालक सहज जिज्ञासु तो होते ही है । कृष्ण भी आकर्षित होकर उन वृक्षो की ओर चलने लगे । आगे-आगे कृष्ण घुटुवन चने जा रहे थे और पीछे-पीछे रस्सी से बँधा ऊखल ।
ज्यो ही श्रीकृष्ण दोनो वृक्षो के ठीक मध्य भाग मे पहुँचे दोनो वृक्षो ने चलना प्रारम्भ कर दिया। वृक्ष एक दूसरे के समीप आने
नलकूबर और मणिग्रीव दोनो ही देवो के धनाव्यक्ष कुवेर के पुत्र थे । एक बार वे दोनों अनेक यक्ष कन्याओं के साथ गंगाजी में जलक्रीडा कर रहे थे। तभी देवपि नारद उधर से आ निकले । नारदजी को देखकर निर्वस्त्र अप्सराएँ तो लजा गई और उन्होंने झटपट वस्त्र पहन लिए परन्तु ये दोनो यक्ष यो ही मदान्ध खडे रहे । नारदजी को उनकी वस्त्रहीन निर्लज्ज दशा देखकर दुख हुआ । उन्होंने समझ लिया कि ये देव पुत्र होकर भी मदान्ध हो रहे हैं । उनकी कल्याण कामना से देवप नारद ने शाप दिया- 'जिम प्रकार तुम वस्त्रहीन निर्लज्ज होकर ठूंठ की... तरह खडे हो उसी प्रकार तुम वृक्ष योनि मे जा पडो ।' इस शाप को सुनते ही नलकूबर और मणिग्रीव ने नारदजी से क्षमा याचना की । तव नारदजी ने आश्वासन दिया कि 'कृष्णावतार मे भगवान के द्वारा तुम्हारा उद्धार होगा ।'
दोनो यक्ष मणिग्रीव और नलकूबर यमलार्जुन जाति के दो वृक्ष हो गए । दामोदर ( श्रीकृष्ण ) जव उनके बीच से निकले तो ऊखल टेढा होकर अटक गया और कृष्ण के जोर लगाते ही दोनो वृक्ष जड सहित टूट कर गिर पडे । उनमे मे दोनो यक्ष मणिग्रीव और नलकूबर निकले । उनका शाप नष्ट हो गया था अत दोनो अपने सहज स्वरूप में आ गए । उन्होने कृष्ण की अनेक प्रकार से स्तुति और वन्दना की तथा उत्तर दिशा की ओर चले गए ।
( श्रीमद्भागवत, दशम स्कंध, अध्याय दशवॉ, श्लोक १ - ४३ )