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श्रीकृष्ण - कथा - वसुदेव- कनकवती विवाह
से बोले
-भद्र | वह अर्जुन जाति के स्वर्ण' से निर्मित मेरी मुद्रिका उतार दो ।
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वसुदेव ने मुद्रिका उतारी तो चमत्कार सा हुआ । उनका अपना स्वरूप प्रगट हो गया । प्रसन्न होकर कनकवती ने वरमाला उनके कठ मे डाल दी ।
उसी समय कुवेर की आज्ञा से आकाश मे देव-दु दुभी वजने लगी । अप्सराएँ - नृत्य और गायन करने लगी । आकाश वाणी
हुई—
- अहो | इस राजा हरिश्चन्द्र की पुत्री कनकवती धन्य है कि इसने लोक-प्रधान पुरुप का वरण किया ।
कुबेर की आज्ञा से देवियो ने वसुधारा बरसाई ।
वसुदेव और कनकवती के विवाह की तैयारियाँ होने लगी । स्वयवर मे उपस्थित सभी राजा रोक लिए गये। सभी विवाह कार्य मे उत्साहपूर्वक भाग लेने लगे ।
जहाँ धनद कुवेर स्वयं उपस्थित हो वहाँ किस वस्तु की कमी हो सकती है ?
धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ ।
स्वयंवर मे उपस्थित सभी राजा विदा हो गये किन्तु राजा हरिश्चन्द्र ने आग्रहपूर्वक कुवेर रोक लिया । वे भी कनकवी के प्रति मोह होने के कारण रुक गये ।
मोह् का ववन' अदृश्य होते हुए भी सर्वाधिक शक्तिशाली होता है । - त्रिषष्टि ८ / ३
१ अर्जुन जाति का स्वर्ण ममवत किमी अन्य स्थान पर प्राप्त होने वाला विशेष प्रकार का स्वर्ण है
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कनकवती और कुवेर के पिछले जन्मो के मवध तथा मोह के बन्धन का पूरा वृतान्त नल-दमयन्ती उपाख्यान मे है ।