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जैन कथामाला
भाग ३१
अमोघरेता का सर्पविप दूर किया और सर्प को प्रतिवोध दिया । वह सर्प मरकर बल नाम का देव हुआ ।
मैने ऋपिदत्ता का रूप रखकर अपने पुत्र को साथ लिया और श्रावस्ती जा पहुँची। राजा शिलायुध को पुत्र देने का प्रयास किया किन्तु वह तो मुझे भूल ही गया था । तव मैने पुत्र तो उसी के पास छोडा और आकाश में उड़कर नभोवाणी की
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राजा गिलायुध । वन मे रहने वाली निर्दा कन्या ऋपित्ता का तुमने भोग किया था, उसी का फल है यह वालक 1 ऋषिदत्ता प्रसव काल मे ही मर कर देवी वनी है । मैं ही वह देवी हूँ । पुत्र मोह के कारण ही मैंने मृगी का रूप रखकर इसका पालन किया है । अत यह एणीपुत्र के नाम से विख्यात है ।
राजा को वीती घटना याद आ गई। उसने अपने पुत्र एणीपुत्र को राज्य पर विठाया और स्वय दीक्षा लेकर स्वर्ग गया ।
एणीपुत्र ने सतान के लिए अट्टमभक्त तप करके मुझे प्रसन्न किया । तब यह प्रियगुसुन्दरी नाम की कन्या मेरे प्रसाद से उत्पन्न हुई । प्रियसुन्दरी के स्वयंवर मे सम्मिलित राजाओ को भी एणीपुत्र मेरी सहायता से ही पराजित कर सका था । वसुदेव को सवोधित करके देवी ने कहा
- हे वीर । प्रियगुसुन्दरी तुम्हे पाने के लिए अट्ठमभक्त तप कर रही है । मेरी प्रेरणा से ही द्वारपाल तुम्हे बुलाने आया था किन्तु तुम अज्ञानवश गये नही । अव जाकर उसके साथ विवाह करो ।
कुमार वसुदेव शातिपूर्वक देवी की बाते सुनते रहे । अभी वे कुछ निर्णय नही कर पाये थे कि देवी का स्वर पुन सुनाई पडा
- वत्स ! विचार करने की आवश्यकता नही । प्रियगुसुन्दरी का लग्न तुम्हारे साथ हो यह विधि का विधान है। हाँ, यदि तुम चाहो तो मुझसे कोई वरदान मांग लो ।
- अभी तो कुछ नही चाहिए जब स्मरण करू तव आने की कृपा करना । — वसुदेव ने उत्तर दिया ।
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